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पहला उद्देशक
२४५ और काल से विशेषित, तीसरा है छेदान्त और चौथा है। कर देता है अथवा आतापना लेने वाला मुनि तृषा से आकुल चारणिका प्रायश्चित्त।
या आतप से आकुल परिणाम वाला होकर स्नान और पान २४१३.संकम जूवे अचले, चले य लहुगो य हुंति लहुगा य। का इच्छुक हो सकता है।
तम्मि वि सो चेव गमो, नवरि गिलाणे इमं होइ॥ २४१८.आउट्ट जणे मरुगाण अदाणे खरि-तिरिक्खिछोभादी। यूपक-वेटक नाम का जलमध्यवर्ती तट। वहां देवकुलिका पच्चखदेवपूयण, खरियाऽऽवरणं व खित्ताई। या अन्य गृह हो सकता है। यूपक पर सेतु अथवा जल से आतापना से प्रभावित होकर जनता ब्राह्मणों को दान नहीं आना-जाना हो सकता है। संक्रम-सेतु चल और अचल दोनों देती। उनको दान न देने पर वे मुनि पर दासी या तिरश्ची प्रकार के होते हैं। चल से जाने पर चतुर्लघु, अचल से जाने संबंधी मिथ्या आरोप लगा सकते हैं। यह प्रत्यक्ष देवता पर मासलघु। यूपक में भी दकतीर जैसी ही वक्तव्यता है। हैं-यह सोचकर उस मुनि की पूजा करते हैं, मूल देवता का ग्लान में कुछ अधिक दोष होते हैं।
पूजन छोड़ देते हैं तब देवता दासी को साध्वी का वेष धारण २४१४.दगुण व सइकरणं, ओभासण विरहिए य आइयणं। करवा कर मुनि को प्रतिसेवना करते हुए दिखाता है, अथवा
परितावण चउगुरुगा, अकप्प पडिसेव मूल दुगं॥ उसको क्षिप्तचित्त कर देता है। ग्लान पानी को देखकर पुरानी स्मृति में खो जाता है। वह २४१९.आयावण साहुस्सा, अणुकंपं तस्स कुणइ गामो उ। पानी मांगता है। पानी देने पर संयमविराधना होती है और न मरुयाणं च पओसो, पडिणीयाणं च संका य॥ देने पर वह टूट जाता है। प्रतिश्रय में साधु न रहने पर वह आतापना लेने वाले साधु को देखकर ग्रामजन उस पर पानी पी लेता है। न पीने पर परितापना होती है। पी लेता है अनुकंपा करते हैं, पारणा के दिन विशेष भक्तपान लाकर देते तो चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अकल्प्य का सेवन हैं, ब्राह्मणों को दान न मिलने पर वे प्रद्वेषवश मुनि पर मिथ्या करने पर मूल। यदि एक ग्लान मुनि पलायन कर जाता है तो आरोप लगाते हैं अथवा जो मुनि के प्रत्यनीक होते हैं वे आचार्य को मूल प्रायश्चित्त आता है। द्विक-गृहिलिंग अथवा मिथ्या आशंका करते हैं कि मुनि यहां क्यों आतापना लेता अन्यतीर्थिक लिंग में ग्लान अप्काय का सेवन करता है तो है। क्या यह स्तेनार्थी या मैथुनार्थी है? उसे मूल प्रायश्चित्त आता है।
२४२०.पढमे गिलाणकारण, बीए वसहीए असइए वसइ। २४१५.आउक्काए लहुगा, पूयरगादीतसेसु जा चरिम।
रायणियकज्जकारण, तइए बिइयपय जयणाए॥ जे गेलन्ने दोसा, धिइदुब्बले हे ते चेव। अपवाद पद-दकतीर पर ग्लान के लिए रहा जा सकता अप्काय का प्रतिसेवन करने पर चतुर्लघुक तथा पूतरक है। निर्दोष वसति की प्राप्ति न होने पर यूपक में रहा जा आदि त्रसकाय का सेवन करने पर चरम अर्थात् पारांचिक सकता है। रायणिय अर्थात् राजा से संबंधित कोई कार्य हो पर्यन्त प्रायश्चित्त है। ग्लान विषयक जो दोष हैं, वे ही तो वहां यतनापूर्वक रहा जा सकता है। ये तीन आपवादिक धृतिदुर्बल शैक्ष के लिए भी हैं।
कारण हैं। २४१६.आयावण तह चेव उ, नवरि इमं तत्थ होइ नाणत्तं। २४२१.विज्ज-दवियट्ठयाए, मज्जण सिंचण परिणाम वित्ति तह देवया पंता॥
निज्जंतो गिलाणो असति वसहीए। दकतीर अथवा यूपक पर आतापना आदि लेने पर जोग्गाए वा असती, वे ही दोष हैं। उनमें नानात्व यही है कि कोई साधु
चिट्ठे दगतीरऽणोयारे॥ वहां आतापना लेता है और कोई गृहस्थ मुनि का ग्लान को वैद्य के पास ले जाते समय अथवा औषधी के मज्जन, सिंचन आदि करता है तो मुनि का स्नान आदि । लिए ले जाते समय योग्य वसति के अभाव में दकतीर पर विषयक परिणाम हो सकता है, ब्राह्मणों की आजीविका ग्लान ठहर सकता है परंतु वह मनुष्य और पशुओं के का छेदन हो सकता है तथा प्रान्त देवता उपसर्ग कर। अप्रवेशमार्ग को छोड़ दे। सकता है।
२४२२.उदगंतेण चिलिमिणी, पडियरए मोत्तु सेस अन्नत्थ। २४१७.मज्जंति व सिंचंति व, पडिणीयऽणुकंपया व णं केई। पडियर पडिसंलीणा, करिज्ज सव्वाणि वि पयाणि ॥
तण्हण्हपरिगयस्स व, परिणामो ण्हाण-पियणेसु॥ वहां ठहरने वालों की यह यतना है-वहां उदकांत में आतापना लेते हुए मुनि को देखकर कोई शत्रुता से अथवा चिलिमिलि बांध दे। ग्लान के प्रतिचारकों को छोड़कर शेष अनुकंपा वश उसको स्नान करा देता है अथवा उसका सिंचन सभी बाहर ठहरे। प्रतिचारक भी गुप्तरूप में बैठें, जिससे कि
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