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प्राणियों को भय न हो। यतनापूर्वक स्थान, निषीदन आदि सभी पद वहां किए जा सकते हैं। २४२३.अद्धाणनिग्गयादी, संकम अप्पाबहुं असुन्नं च।
गेलन्न-सेहभावो, संसट्ठसिणं व निव्वविउं॥ अर्ध्वनिर्गत साधु अन्य वसति के अभाव में यूपक पर रह सकता है। अल्प-बहुत्व का चिंतन कर संक्रम का उपयोग करे। रात और दिन में वसति को शून्य कर दे। वहां रहने पर ग्लान और शैक्ष को पानी पीएं-ऐसा अशुभ भाव उत्पन्न हो तो उनको समझाए या संसृष्ट उष्ण उदक को सुशीतल कर उन्हें पिलाए। २४२४.ओलोयण निग्गमणे, ससहाओ दगसमीवे आयावे।
उभयदढो भोगजढे, कज्जे आउट्ट पुच्छणया॥ राजा को आकृष्ट करने के लिए मुनि ऐसे दकतीर पर आतापना ले जो दकतीर राजा के अवलोकनपथ या निर्गमनपथ पर हो, मुनि अकेला न हो, कोई साथ में हो और जो धृति और संहनन-दोनों से दृढ़ हो तथा मनुष्य और पशुओं के उपभोग स्थान को छोड़कर आतापना ले। राजा उस मुनि से आकृष्ट होकर पास में आकर पूछ सकता है-महाराज! मैं आपकी क्या सेवा करूं? तब मुनि उसे अपना कार्य कहे। २४२५.भाविय करणो तरुणो, उत्तर-सिंचणपहे य मुत्तूणं।
मज्जणमाइनिवारण, न य हिंडइ पुप्फ वारेइ॥ वह सहायक भावित, कृतकरण तथा तरुण हो। आतापना लेने वाला मुनि दकतीर पर तिर्यंच और मनुष्यों के उत्तरण पथ और सिंचन पथ को छोड़कर आतापना ले। ऐसा करने पर भी यदि कोई आतापना लेने वाले मुनि को स्नान कराता है, सिंचन करता है तो वह सहायक उसका निवारण करे। वह आतापक भिक्षा के लिए नहीं घूमता। आतापक पर कोई फूल चढ़ाता है तो भी वह सहायक निवारण करता है।
=बृहत्कल्पभाष्यम् २४२६.पढम-चउत्थवयाणं, अतिचारो होज्ज दगसमीवम्मि। ___इह वि य हुज्ज चउत्थे, सचित्तकम्मेस संबंधो॥
पूर्व सूत्र में मुनि-साध्वी के पानी के समीप रहने-बैठने आदि से प्रथम और चतुर्थ महाव्रत में होने वाले अतिचारों का वर्णन था। प्रस्तुत सूत्र में सचित्र उपाश्रय में रहने पर होने वाले चतुर्थ महाव्रत के अतिचारों का वर्णन है। २४२७.नो कप्पइ जागरिया, चिट्ठणमाई पया य दगतीरे।
चित्तगयमाणसाणं, जागरि-झाया कुतो अहवा॥ दकतीर पर जागरिका-धर्मध्यान आदि तथा स्थाननिषीदन आदि करना नहीं कल्पता। प्रस्तुत सूत्र में सचित्र उपाश्रय में रहने पर चित्र में लीन मन वाले साधु-साध्वियों के जागरिका और स्वाध्याय कैसे संभव हो सकता है? यह सूत्र से दूसरा संबंध है। २४२८.निद्दोस सदोसे वा, सचित्तकम्मे उ दोस आणादी।
सइकरणं विकहा वा, बिइयं असतीए वसहीए। निर्दोष अथवा सदोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। वहां रहने पर स्मृतिकरण तथा विकथा का प्रसंग होता है। अपवादस्वरूप वसति के न मिलने पर वहां रहा जा सकता है। २४२९.तरु गिरि नदी समुहो, भवणा वल्ली लयावियाणा य।
निहोस चित्तकम्म, पुन्नकलस-सोत्थियाई य॥ वह चित्रकर्म वाला उपाश्रय निर्दोष है जिसमें वृक्ष, पहाड़, नदी, समुद्र, भवन, वल्ली, लताओं का निकुरम्ब, पूर्णकलश, स्वस्तिक आदि भित्तिचित्र हो। . २४३०.तिरिय-मणुय-देवीणं, जत्थ उ देहा भवंति भित्तिकया।
सविकार निविकारा, सदोस चित्तं हवइ एयं॥ वह चित्रकर्म वाला उपाश्रय सदोष है जिसमें पशुस्त्रियों, नारियों तथा देवियों के सविकार और निर्विकार शरीरों को चित्रित किया गया हो। २४३१.लहु गुरु चउण्ह मासो,
विसेसितो गुरुगो आदि छल्लहुगा। चउलहुगादी छग्गुरु,
उभयस्स वि दुविहचित्तम्मि। निर्दोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर चारों आचार्य, उपाध्याय, वृषभ और भिक्षुक के तपःकाल विशेषित लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी, गणावच्छेदिनी, अभिषेका और भिक्षुणी-इन चारों के तपकाल से विशेषित गुरुमास का प्रायश्चित्त है। सदोष चित्रकर्म वाले उपाश्रय में रहने पर निग्रंथों के गुरुमास आदि में और षडलघुक आदि पर्यन्त में। निग्रंथिनियों के ..
चित्तकम्म-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए।
(सूत्र २०) कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अचित्तकम्मे उवस्सए वत्थए॥
(सूत्र २१)
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