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________________ पहला उद्देशक २४७ चतुर्लघु आदि में और षड्गुरुक अन्त में। इस प्रकार द्विविध चित्रकर्मवाले उपाश्रय में दोनों वर्गों के प्रायश्चित्त का विधान है। २४३२.दिनुं अन्नत्थ मए, चित्तं तं सोभणं न एअं ति। इति विकहा पलिमंथो, सज्झायादीण कलहो य॥ चित्रकर्म वाले उपाश्रय में चित्रकर्म को देखकर कोई साधु कहता है-अन्यत्र मैंने जो चित्र देखा था वह सुन्दर था, यह वैसा नहीं है। दूसरा इसका प्रतिवाद करता है। यह विकथा है, स्वाध्याय का परिमंथ है। इससे परस्पर कलह भी होता है। २४३३.अद्धाणनिग्गयाई, तिपरिरया असइ अन्नवसहीए। तरुणा करिति दूरे, निच्चावरिए य ते रूवे॥ अध्वनिर्गत मुनि अन्य वसति के लिए तीन बार परिभ्रमण करते हैं। वसति प्राप्त न होने पर वे सचित्रकर्म वाले उपाश्रय में ठहरते हैं। तरुण साधु-साध्वियों को उनसे दूर रखते हैं। वे उन चित्रों को सदा चिलिमिलिका से आवृत रखते हैं। सागारिय-निस्सा-पदं नो कप्पइ निग्गंथीणं सागारियअनिस्साए वत्थए। (सूत्र २२) कप्पइ निग्गंथीणं सागारिय-निस्साए वत्थए॥ (सूत्र २३) २४३६.सागारियं अनिस्सा, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं। गुरुगा दोहिं विसिट्ठा, चउगुरुगाई व छेदंता॥ यदि भिक्षुणियां आदि अनिश्रा में रहती हैं तो उन्हें तप और काल-दोनों से विशिष्ट चतुर्गुरुक का प्रायश्चित्त आता है। अथवा चतुर्गुरुक से प्रारंभ कर छेदान्त पर्यन्त प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। २४३७.कंपइ वाएण लया, ___ अणिस्सिया निस्सिया उ अक्खोभा। इय समणी अक्खोभा, सगारिनिस्सेयरा भइया॥ अनिश्रित लता वायु से प्रकंपित होती है और निश्रित लता अक्षोभ्य होती है। इसी प्रकार सागारिकनिश्रित श्रमणी अक्षोभ्य होती है और अनिश्रित श्रमणी की भजना है यदि वह स्वयं धृति-बलयुक्त है तो अक्षोभ्य होती है और यदि धृति-दुर्बल होती है तो क्षोभ्य होती है। २३३८.दोहि वि पक्खेहिं सुसंवुयाण तह वि गिहिनीसमिच्छंति। बहुसंगहिया अज्जा, होइ थिरा इंदलट्ठी वा॥ यद्यपि आर्यायें आचार्य और प्रवर्तिनी-इन दोनों पक्षों से सुसंवृत होती हैं, फिर भी सागारिक की निश्रा वांछित है। जिस प्रकार इन्द्रयष्टि अनेक यष्टियों से बद्ध होकर ही निष्कंप होती है, वैसे ही आचार्य आदि चिंतकों से परिगृहीत आर्या ही निष्प्रकंप होती है। २४३९.पत्थितो वि य संकइ, पत्थिजंतो वि संकती बलिणो। सेणा वहू य सोभइ, बलवइगुत्ता तहऽज्जा वि॥ समर्थ सागारिक की निश्रा में रहने वाली आर्या की प्रार्थना करने वाला सशंक-भयभीत होता है और आर्या भी समर्थ सागारिक के कारण सशंक होती है। जैसे सेना सेनापति से और वधू बलवान् श्वसुरपक्ष और पितृपक्ष से गुप्त रहकर शोभित होती है, वैसे ही आर्या भी बलवान शय्यातर से परिगृहीत होने पर ही शोभित होती हैं। २४४०.सुन्ना पसुसंघाया, दुब्बलगोवा य कस्स न वितक्का। इय दुब्बलनिस्साऽनिस्सिया व अज्जा वितकाओ॥ जो पशुओं का समूह शून्य अथवा दुर्बल रक्षपाल से परिगृहीत होता है वह किसके लिए अभिलषणीय नहीं होता? इसी प्रकार दुर्बल निश्रा वाली अथवा अनिश्रावाली आर्या किसके लिए वितळ-अभिलषणीय नहीं होती? २४४१.अइया कुलपुत्तगभोइया उ पक्कन्नमेव सुन्नम्मि। इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा उवहिं व ताओ वा॥ २४३४.एरिसदोसविमुक्कम्मि आलए संजईण नीसाए। कप्पइ जईण भइओ, वासो अह सुत्तसंबंधो॥ इस प्रकार के दोषमुक्त आलय में सागारिकनिश्रा में साध्वियों को रहना कल्पता है। साधु के लिए ऐसा निवास विकल्पित है अर्थात् वे सागारिक की निश्रा या अनिश्रा में भी वे रह सकते हैं। यह प्रस्तुत सूत्र से संबंध है। २४३५.सागारियं अनीसा, निग्गंथीणं न कप्पए वासो। चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव तरुणादी॥ सागारिक अर्थात शय्यातर की निश्रा के बिना साध्वियों को निवास नहीं कल्पता। यदि यह सूत्र आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। वे ही तरुण आदि दोष (गाथा २३०४ वत्) प्राप्त होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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