________________
२४८
=बृहत्कल्पभाष्यम् कप्पइ निग्गंथाणं सागारिय-निस्साए वा अनिस्साए वा वत्थए॥
(सूत्र २४)
बकरी, कुलपुत्र की महिला और पक्वान्न-ये यदि शून्य में रहते हैं, किसी के निश्रा में नहीं रहते वे प्रत्येक के लिए स्पृहणीय हो जाते हैं। यदि आर्यायें तरुणों द्वारा प्रार्थना किए जाने पर स्पृहा करती हैं तो ब्रह्मव्रत का भंग होता है, और यदि स्पृहा नहीं करती तो तरुण बलात् उनका ग्रहण कर लेते हैं। स्तेन आर्यायों का या उनकी उपधि का अपहरण कर लेते हैं। २४४२. उच्छुय-घय-गुल-गोरस-एलालुग-माउलिंगफलमादी।
पुप्फविही गंधविही, आभरणविही य वत्थविही। इक्षु, घृत, गुड़, गोरस, ककड़ी, बीजपूरक फल आदि तथा पुष्पविधि, गंधविधि, आभरणविधि और वस्त्रविधि-ये शून्य अथवा दुर्बल परिगृहीत होने पर सबके लिए स्पृहणीय होते हैं। वैसे ही आर्यिकाएं भी अपरिगृहीत होने पर तरुणों के लिए स्पृहणीय होती हैं। २४४३.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए।
संवरणं वसभा वा, ताओ व अपच्छिमा पिंडी। अध्वनिर्गत साध्वियां परिगृहीत वसति की तीन बार गवेषणा करें। यदि वह प्राप्त न हो तो सागारिक के अनिश्रित वसति में भी रह सकती हैं। उसको कपाट से बंद रखें। कपाट न मिलने पर वृषभ मुनि गृहस्थ का वेश पहन कर साध्वियों की रक्षा करें। यदि वृषभ न हों तो वे साध्वियां ही हाथ में दंड धारण कर, पिंडीभूत होकर रहें। यह अपश्चिम यतना है। २४४४.भोइय-महतरगाई, समागयं वा भणंति गामं तु।
निवगुत्ताणं वसही, दिज्जउ दोसा उ भे उवरिं।। गांव में भोजिक, महत्तर आदि को अथवा जहां गांववासी एकत्रित होते हैं उस सभा में जाकर साधु कहे-'हम नृप के द्वारा रक्षित रहकर ही अपने व्रतों का सम्यग् पालन कर सकते हैं। आप हमें उपयुक्त वसति दें। अन्यथा शून्य उपाश्रय में रहने वाली साध्वियों के जो उपद्रव आदि दोष होंगे, वे सब आप पर आयेंगे।' यह कहने पर वे उपयुक्त वसति की व्यवस्था कर देते हैं। २४४५.कयकरणा थिरसत्ता, गीया संबंधिणो थिरसरीरा।
जियनिहिंदिय दक्खा, तब्भूमा परिणयवया य॥ साध्वियों की रक्षा के निमित्त जो वृषभ हों वे कृत- करण-धनुर्वेद के अभ्यासी, स्थिर सत्त्ववाले, गीतार्थ, साध्वियों के ही संबंधी, शरीरबलयुक्त, नींद तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त, दक्ष, उसी भूमी में रहने वाले तथा अवस्था प्राप्त हों।
२४४६.साहू निस्समनिस्सा,
कारणि निस्सा अकारणि अनिस्सा। निक्कारणम्मि लहुगा,
कारणे गुरुगा अनिस्साए॥ साधु सागारिक की निश्रा या अनिश्रा में रह सकते हैं। कारण होने पर निश्रा में और अकारण में अनिश्रा में रहा जा सकता है। अकारण में निश्रा में रहने पर चतुर्लघु और कारण में अनिश्रा में रहने पर चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। २४४७.उठेत निवेसिंते, भोजण-पेहासु सारि मोए अ।
सज्झाय बंभगुत्ती, असंगता तित्थऽवण्णो य॥ निष्कारण सागारिक की निश्रा में रहने पर ये दोष होते हैं-कोई साधु उठते-बैठते नग्न हो जाता है, भोजन करते समय प्रत्युपेक्षा करते समय सागारिक उच्चक (मजाक) करते हैं, रात्री में कायिकी से आचमन करने पर वे उड्डाह करते हैं। स्वाध्याय करते समय मजाक तथा स्त्रियों के अंगप्रत्यंग को देखने से ब्रह्मचर्य की अगुप्ति होती है। लोग कहते हैं-ये असंगत हैं, इनको स्त्रीरहित उपाश्रय में रहना चाहिए। इस प्रकार तीर्थ की अवमानना होती है।
सागारिय-उवस्सय-पदं
नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सागारिए उवस्सए वत्थए।
(सूत्र २५)
२४४८.तेण सावय मसगा, कारण निक्कारणे य अहिगरणं।
एएहिं कारणेहिं, वसंति नीसा अनीसा वा। जहां स्तेन, श्वापद और मशकों का उपद्रव हो वहां मुनि को निश्रा में रहना चाहिए। निष्कारण रहने पर अधिकरण होता है। इन कारणों से निश्रा या अनिश्रा में रहा जा सकता है। २४४९.निस्स ति अइपसंगेण मा हु सागारियम्मि उ वसिज्जा।
ते चेव निस्सदोसा, सागारिए निवसतो मा हु॥ साध्वियों को सागारिक के निश्रा में ही रहना कल्पता है और साधुओं को कारण में निश्रा में रहना कल्पता है--यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org