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________________ पहला उद्देशक = = २४९ कहने पर अतिप्रसंग दोष से सागारिक प्रतिश्रय में भी रह किसकी कैसी महात्मता और समर्थता है? कुछेक साधु धृति सकते हैं, ऐसा न मान लिया जाए क्योंकि सागारिक उपाश्रय से दुर्बल होते हैं, वे स्त्रियों के पास जाते हैं, उनका परिभोग में रहने पर वे निश्रा दोष होते हैं, अतः सागारिक सूत्र का करते हैं। प्रारंभ किया गया है। २४५६.केइत्थ भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य केइ निक्खंता। २४५०.सागारियनिक्खेवो, चउव्विहो होइ आणुपुव्वीए। रमणिज्ज लोइयं ति य, अम्हं पेतारिसा आसी॥ नामं ठवणा दविए, भावे य चउव्विहो भेदो॥ २४५७.एरिसओ उवभोगो, 'सागारिक' शब्द का निक्षेप अनुपूर्वी से चार प्रकार का __अम्ह वि आसि ण्ह इण्हि उज्जल्ला। है नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव। दुक्कर करेमु भुत्ते, २४५१.रूवं आभरणविही, वत्थालंकार भोयणे गंधे। कोउगमियरस्स दट्टणं॥ - आउज्ज नट्ट नाडग, गीए सयणे य दव्वम्मि॥ गच्छ में कुछ जन भोगों को भोग कर निष्क्रमण करते हैं रूप, आभरणविधि, वस्त्र, अलंकार, भोजन, गंध, और कुछ भोगों को भोगे बिना ही। भुक्तभोगी और अभुक्तआतोद्य, नृत्त, नाटक, गीत, शयन-ये सारे द्रव्य सागारिक भोगी-दोनों ही सोचते हैं कि यह लौकिक चरित रमणीय है। हैं। (व्याख्या आगे।) हम भी जब गृहस्थी में थे तब हमारे भी ऐसे ही भोग थे। २४५२.जं कट्ठकम्ममाइसु, रूवं सट्ठाणे तं भवे दव्वं। ऐसा ही उपभोग था। अब हम अत्यंत मलिन शरीर वाले हैं ___जं वा जीवविमुक्वं, विसरिसरुवं तु भावम्मि॥ और हम दुष्कर-केशलुंचन, भूमीशयन आदि कर रहे हैं। यह जो काष्ठकर्म (चित्रकर्म और लेप्यकर्म) में पुरुष और स्त्री भुक्तभोगी का चिंतन है। अभुक्तभोगी रूप-आभरण आदि के रूप का निर्माण किया जाता है वह स्वस्थान में द्रव्य- देखकर कुतूहल से भर जाता है। सागारिक है। (स्वस्थान का अर्थ है-निग्रंथों का पुरुषरूप और २४५८.सति-कोउगेण दुण्णि वि, साध्वियों का स्त्रीरूप। जो विसदृशरूप होता है वह परिहिज्ज लइज्ज वा वि आभरणं। भावसागारिक है-निग्रंथों का स्त्रीरूप और साध्वियों का अन्नेसिं उवभोगं, पुरुषरूप। जो जीव विप्रमुक्त पुरुषशरीर या स्त्रीशरीर है करिज्ज वाएज्ज वुड्डाहो॥ वह भी स्वस्थान में द्रव्यसागारिक है, परस्थान में भाव स्मृति और कुतूहल से अभिभूत दोनों भुक्तभोगी और सागारिक है)। अभुक्तभोगी वस्त्र आदि पहन लें, आभूषण आदि धारण कर २४५३.नट्ट होइ अगीयं, गीयजुयं नाडयं तु नायव्वं । लें तथा अन्य गंध आदि का भी उपभोग कर लें, वादित्र ___ आभरणादी पुरिसोवभोग दव्वं तु सट्ठाणे॥ बजाने लग जाएं। यह सारा देखकर गृहस्थ उड्डाह करने लग गीतरहित नृत्य होता है और गीतयुक्त होता है नाटक। जो जाते हैं। पुरुषों के उपभोगयोग्य आभरण आदि होता है वह स्वस्थान २४५९.तच्चित्ता तल्लेसा, भिक्खा-सज्झायमुक्कतत्तीया। में द्रव्य-सागारिक है। भोजन, गंध, आबोद्य तथा शयन-ये विकहा-विसुत्तियमणा, गमणुस्सुय उस्सुयब्भूया॥ साधु-साध्वी के समान होने के कारण द्रव्यसागारिक हैं और वैसे मुनि तच्चित्त और तल्लेश्य होकर भिक्षाचर्या और शेष साधु-साध्वियों के स्वस्थानयोग्य हों तो द्रव्यसागारिक स्वाध्याय की तप्ति-प्रवृत्ति से मुक्त हो जाते हैं। वे विकथा में और परस्थानयोग्य हों तो भावसागारिक। लीन हो जाते हैं तथा वे चित्तविप्लुति के शिकार होकर २४५४.एक्विक्कम्मि य ठाणे, भोअणवज्जे य चउलह हुंति। संन्यास से पलायन करने के लिए उत्सुक होकर उत्प्रवजित चउगुरुग भोअणम्मि, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ हो जाते हैं, गृहस्थाश्रम में चले जाते हैं। रूप, आभरण आदि प्रत्येक स्थान में चतुर्लघु २४६०.सुट्ठ कयं आभरणं,विणासियं न वि य जाणसि तुम पि। प्रायश्चित्त है। इसमें भोजन वर्ण्य है। भोजनसागारिक में सुदृड्डाहो गंधे, विसुत्तिया गीयसद्देसु॥ चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। वहां भी आज्ञाभंग आदि दोष साधु परस्पर विकथा करते हुए कहते हैं यह आभरण होते हैं। अच्छा बना है। दूसरा कहता है-इसका तो विनाश कर २४५५.को जाणइ को किरिसो, कस्स व माहप्पया समत्थत्ते। डाला। तुम कुछ नहीं जानते। कोई शरीर पर गंध द्रव्य धिइदुब्बला उ केई, डेविति तओ अगारिजणं॥ लगाता है तो उड्डाह करते हैं। आतोद्य आदि के शब्दों से कौन जानता है कौन साधु किस परिणाम वाला है? विस्रोतसिका होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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