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________________ २५० =बृहत्कल्पभाष्यम् २४६१.निच्चं पि दव्वकरणं, अवहियहिययस्स गीयसदेहिं। स्त्रीशरीर भूषणविरहित तथा जीववियुक्त है उसे रूप कहा पडिलेहण सज्झाए, आवासग भुंज वेरत्ती॥ जाता है। जो मुनि गीत आदि के शब्दों में लवलीन होते हैं उनके २४६७.तं पुण रूवं तिविहं, दिव्वं माणुस्सयं तिरिक्खं च। सदा प्रत्युपेक्षण, स्वाध्याय, आवश्यक, भोजनक्रिया, पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं चेव। वैरात्रिक तथा प्राभातिक क्रियाएं द्रव्यक्रियाएं होती हैं, वह रूप तीन प्रकार का है-दिव्य, मानुष्य और तैरश्च। भावक्रियाएं नहीं। पुनः एक-एक के तीन-तीन प्रकार हैं-प्राजापत्यपरिगृहीत मणसहिएण उ काएण कुणइ वायाए भासई जं च। (प्राजापत्या-सामान्यलोकाः), कौटुम्बिकपरिगृहीत और एअंतु भावकरणं, मणरहितं तं दव्वकरणं तु॥ दंडिकपरिगृहीत। इन सबके जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट भेद (आ. नि. १४८६) से तीन-तीन प्रकार हैं। २४६२.ते सीदितुमारद्धा, संजमजोगेसु वसहिदोसेणं। २४६८.वाणंतरिय जहन्नं, भवणवई जोइसं च मज्झिमगं। गलइ जतुं तप्पत्तं, एव चरित्तं मुणेयव्वं॥ वेमाणिय उक्कोसं, पगयं पुण ताण पडिमासु॥ वे मुनि वसति के दोषों से दुःख पाते हैं और उनके दिव्यरूपों में वानमंतरिकरूप जघन्य, भवनपति और संयमयोग अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। जैसे लाख अग्नि से ज्योतिष्क मध्यम और वैमानिकरूप उत्कृष्ट होता है। प्रस्तुत तप्त होकर पिघल जाता है वैसे ही राग से संतप्त प्रसंग में सागारिक उपाश्रय में वानमंतरियों की जो प्रतिमाएं मुनियों का चारित्र भी परिगलित हो जाता है, यह जानना हैं उन्हीं का यहां अधिकार है। चाहिए। २४६९.कट्ठ पुत्थे चित्ते, जहन्नयं मज्झिमं च दंतम्मि। २४६३.उन्निक्खंता केई, पुणो वि सम्मेलणाए दोसेणं । सेलम्मि य उक्कोसं, जं वा रूवाउ निष्फन्नं ।। वच्चंति संभरंता, भंतूण चरित्तपागारं॥ प्रकारान्तर से दिव्य प्रतिमाओं के जघन्य आदि प्रकार ये कुछेक मुनि उपाश्रय में स्त्रीरूप आदि के सम्मेलन के हैं-काष्ठकर्म में, पुस्तकर्म में तथा चित्रकर्म में जो दिव्यरूप दोषों से प्रभावित होकर उत्प्रवजित हो जाते हैं, और उत्कीर्ण होते हैं वे जघन्य, जो हाथीदांत पर होते हैं वे मध्यम चारित्ररूपी प्राकार को तोड़कर उन स्त्रीरूपों का स्मरण तथा जो पत्थर पर, मणि आदि पर उत्कीर्ण होते हैं वे उत्कृष्ट करते हुए पुनः गृहवास में चले जाते हैं। माने जाते हैं। अथवा जो रूप से निष्पन्न है वह जघन्य, मध्यम २४६४.एगम्मि दोसु तीसु व, ओहावितेसु तत्थ आयरिओ। आदि होती है। मूलं अणवठ्ठप्पो, पावइ पारंचियं ठाणं॥ २४७०.ठाण-पडिसेवणाए, तिविहे वी दुविहमेव पच्छित्तं। इस प्रकार एक साधु के उत्प्रवजित होने पर आचार्य को लहुगा तिन्नि विसिट्ठा, अपरिगहे ठायमाणस्स। मूल, दो होने पर अनवस्थाप्य और तीन के होने पर पारांचिक तीनों प्रकार की दिव्य प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने पर स्थान प्राप्त होता है। अथवा जिनके अधीन वे साधु हों उनको दो प्रकार का प्रायश्चित्त आता है-स्थाननिष्पन्न और यह प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रतिसेवनानिष्पन्न। अपरिगृहीत दिव्य प्रतिमायुत उपाश्रय में २४६५.अट्ठारसविहऽबंभं, भावउ ओरालियं च दिव्वं च। रहने पर स्थाननिष्पन्न प्रायश्चित्त यह है-जघन्य में चार लघु मण-वयस-कायगच्छण, भावम्मि य रूव संजुत्तं॥ तप और काल से भी लघु, मध्यम में चार लघु काल से गुरु, अब्रह्मचर्य अठारह प्रकार का है। उसके दो मूल भेद उत्कृष्ट में वही तपोगुरु। हैं-औदारिक और दिव्य। इनके मन, वचन और काया के २४७१.चत्तारि य उग्घाया, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया। आधार पर नौ-नौ भेद होते हैं। यह अठारह प्रकार का अब्रह्म छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स। भाव सागारिक है अथवा रूपसहगत जो अब्रह्म है वह भी २४७२.पायावच्चपरिग्गहे, दोहि वि लहु होति एते पच्छित्ता। भाव सागारिक है। कालगुरू कोडुबे, दंडियपारिग्गहे तवसा॥ २४६६.अहव अबंभं जत्तो, भावो रूवाउ सहगयाओ वा। परिगृहीत में यह प्रायश्चित्त है-प्रथम अर्थात जघन्य में भूसण-जीवजुयं वा, सहगय तव्वज्जियं रूवं॥ चार उद्घातिम अर्थात् लघुमास, दूसरा अर्थात् मध्यम में वे अथवा रूप से या रूपसहगत भाव से अब्रह्म की उत्पत्ति अनुद्घातिम अर्थात् गुरुमास, उत्कृष्ट में छह उद्घातिम होती है, वह भावसागारिक है। जो स्त्रीशरीर भूषित है अथवा अर्थात् छह लघुमास। अभूषित, परंतु जीवयुक्त है उसे रूपसहगत कहा जाता है। जो ये ही प्रायश्चित्त प्राजापत्यपरिगृहीत में दोनों अर्थात् तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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