________________
२५१
पहला उद्देशक
और काल से लघु, कौटुम्बिकपरिगृहीत में कालगुरु और दंडिकपरिगृहीत में तप से गुरु। २४७३.चत्तारि य उग्घाता, पढमे बिइयम्मि ते अणुग्घाया।
तइयम्मि अणुग्घाया, चउत्थ छम्मास उग्घाता। २४७४.पंचमगम्मि वि एवं, छटे छम्मास होतऽणुग्घाया।
असन्निहिए सन्निहिए, एस विही ठायमाणस्स॥ प्रथम जघन्य-असन्निहित, द्वितीय जघन्य सन्निहित, तृतीय मध्यम असन्निहित, चतुर्थ मध्यम सन्निहित, पंचम उत्कृष्ट असन्निहित और षष्ठ उत्कृष्ट सन्निहित। विधि यह है-जघन्य असन्निहित प्राजापत्यपरिग्रहीत में रहने पर चार उद्घात मास, सन्निहित में चार अनुद्घात मास, मध्यम असन्निहित में चार अनुद्घातमास, सन्निहित में छह उद्घात मास, उत्कृष्ट असन्निहित में छह उद्घातमास और सन्निहित में छह अनुरातमास। यह विधि वहां रहने पर है। २४७५.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेण।
बिइयम्मि अ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि॥ प्रथम स्थान अर्थात् प्राजापत्यपरिगृहीत में ये सारे प्रायश्चित्त तप और काल दोनों से लघु होते हैं। दूसरे अर्थात् कौटुम्बिकपरिगृहीत में ये ही कालगुरुक और तीसरे अर्थात् दंडिकपरिगृहीत में ये तपोगुरुक होते हैं। २४७६.अहवा भिक्खुस्सेयं, जहन्नगाइम्मि ठाणपच्छित्तं।
गणिणो उवरिं छेदो, मूलायरिए पदं हसति॥ अथवा जघन्य आदि में चतुर्लघु से प्रारंभ कर षड्गुरु पर्यन्त जो स्थानप्रायश्चित्त कहा है वह भिक्षु से संबंधित है। गणी अर्थात् उपाध्याय के षड्गुरु से ऊपर छेद पर्यन्त प्रायश्चित्त है। आचार्य के एक उपरीतन पद बढ़ता है और अधस्तन एक पद का ह्रास होता है अर्थात् आचार्य के षड्लघु से मूलपर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। (यह स्थान-प्रायश्चित्त कहा गया है। आगे प्रतिसेवना प्रायश्चित्त है।) २४७७.चत्तारि छ च्च लहु गुरु,
छम्मासितो छेदो लहुग गुरुगो य। मूलं जहन्नगम्मि,
सेवंति पसज्जणं मोत्तुं॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य प्रतिमा जो असन्निहित है उसकी अदृष्टरूप में प्रतिसेवना करने पर चतुर्लघु और दृष्ट में चतुर्गुरु, सन्निहित अदृष्ट में चतुर्गुरु और दृष्ट में षड्लघु। कौटुम्बिकपरिगृहीत जघन्य, असन्निहित अदृष्टप्रतिसेवना का षडलघु, दृष्ट में षड्गुरु, सन्निहित अदृष्ट में षड्गुरु और दृष्ट में लघुषाण्मासिक छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य असन्निहित अदृष्ट प्रतिसेवना का लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट
में गुरुषाण्मासिक छेद, सन्निहित अदृष्ट में गुरुषाण्मासिक छेद तथा दृष्ट में मूल। यह जघन्य दिव्यप्रतिमा की प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त है। प्रसज्जना अर्थात् किसी के देख लेने पर ग्रहण, आकर्षण आदि जो दोषों के प्रसंग आते हैं, उन्हें छोड़कर इनका प्रायश्चित्त अलग से आता है। २४७८.चउगुरुग छ च्च गुरु,
छम्मासिओ छेदो लहुओ गुरुगो य। मूलं अणवठ्ठप्पो,
___ मज्झिमए पसज्जणं मोत्तुं॥ मध्यमरूपवाली प्रतिमाओं की प्रतिसेवना का प्रायश्चित्त यह है-प्राजापत्यपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट-चतुर्गुरु, दृष्ट षड्लघु, सन्निहित अदृष्ट षड्लघु, दृष्ट षड्गुरु। कौटुम्बिकपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट षड्गुरु, दृष्ट लघुषाण्मासिकछेद, सन्निहित अदृष्ट लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट गृहषाण्मासिकछेद। दंडिकपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, दृष्ट मूल, सन्निहित अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य। इसमें भी प्रसज्जना को छोड़कर पूर्ववत्। २४७९.तव छेदो लहु गुरुगो, छम्मासितो मूल सेवमाणस्स।
अणवट्ठप्पो पारंचि, उक्कोसे पसज्जणं मोत्तुं। उत्कृष्ट-प्राजापत्यपरिगृहीत असन्निहित अदृष्ट लघुपाण्मासिक तप, दृष्ट गुरुषाण्मासिक तप, सन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक तप, दृष्ट लघुषाण्मासिक छेद। कौटुंबिक असन्निहित अदृष्ट लघुषाण्मासिक छेद, दृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, सन्निहित अदृष्ट गुरुषाण्मासिक छेद, दृष्ट मूल। दंडिक असन्निहित अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य, सन्निहित अदृष्ट अनवस्थाप्य, दृष्ट पारांचिक। इसमें भी पूर्ववत् प्रसज्जना को छोड़कर। २४८०.पायावच्चपरिग्गहे, जहन्न सन्निहियए असन्निहिए।
दिट्ठाऽदिद्वे सेवइ, एसाऽऽलावो उ सव्वत्थ॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य सन्निहित असन्निहित दृष्ट अदृष्ट की जो प्रतिसेवना करता है-यह आलापक सर्वत्र समझना चाहिए। गाथा में असन्निहित और अदृष्ट पद का बंधानुलोमता के कारण पश्चात् निर्देश है। २४८१.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठो तइए पारंची।
तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची॥ जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org