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=बृहत्कल्पभाष्यम्
उत्कृष्ट में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त यदि अप्रतिसेवी को भी प्रायश्चित्त आता है तो फिर एक विहित है।
भी अप्रायश्चित्ती नहीं मिलेगा। कोई भी अभी कर्मबंधनों से २४८२.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ एक्केक्के। मुक्त नहीं होगा। तथा दोष करने वाला और न करने वाला
चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं॥ दोनों समान हो जाएंगे। इस प्रकार प्रायश्चित्त देने पर रागप्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में द्वेष की बात आएगी। प्रसज्जना होती है।' चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से २४८७.मुरियादी आणाए, अणवत्थ परंपराए थिरिकरणं। दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक मिच्छत्ते संकादी, पसज्जणा जाव चरिमपदं॥ प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी मौर्यवंशीय तथा आज्ञा को सार मानने वाले अन्य राजाआता है।
इनका दृष्टांत है। पहले अनवस्था, फिर परंपरा और फिर २४८३.जइ पुण सव्वो वि ठितो,
उसी अपराध पद का स्थिरीकरण। फिर मिथ्यात्व, शंका सेविज्जा होज्ज चरिमपच्छित्तं। आदि। पसज्जना फिर चरमपद अर्थात् पारांचिक पर्यन्त तम्हा पसंगरहियं,
प्रायश्चित्त। ___जं सेवइ तं न सेसाई॥ २४८८.अवराहे लहुगयरो, किं णु हु आणाए गुरुतरो दंडो। जो ऐसे उपाश्रय में ठहरता है, वह प्रतिसेवना करता ही
आणाए च्चिय चरणं, तब्भंगे किं न भग्गं तु॥ है तो चरम प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ऐसा नहीं होता। अतः शिष्य ने पूछा-अपराध में लघुतर दंड और आज्ञाभंग में जो प्रसंगरहित ऐसे स्थान उपाश्रय का सेवन करता है, गुरुतर दंड-यह क्यों? आचार्य ने कहा-आज्ञा से ही चरण उसके तन्निष्पन्न प्रायश्चित्त ही आता है, शेष मूल आदि नहीं। व्यवस्थित होता है। आज्ञा के भंग होने पर चरण का भंग २४८४.अहिट्ठाओ दि8, चरिमं तहि संकमाइ जा चरिमं। क्यों नहीं होगा? ___अहवण चरिमाऽऽरोवण, ततो वि पुण पावए चरिमं॥ २४८९.भत्तमदाणमडते, आणट्ठवणंब छेत्तु वंसवती।
अदृष्टपद से दृष्टपद चरम है। चरमपद में शंका आदि गविसण पत्त दरिसए, पुरिसवइ सबालडहणं च। होती है। तो क्रमशः पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। मौर्य दृष्टांत चंद्रगुप्त मौर्य राजा बना। वह मोरपोषक का अथवा चरम आरोपणा जैसे जघन्य में चरम है मूल, मध्यम पुत्र है, यह सोचकर उसकी आज्ञा का पालन नहीं होता था। में चरम है अनवस्थाप्य और उत्कृष्ट में चरम है पारांचिका चाणक्य ने सोचा आणाहीणो केरिसो राया। इसलिए मुझे फिर वह पुनः चरम अर्थात् पारांचिक प्रायश्चित्त को प्राप्त । ऐसा प्रयत्न करना चाहिए जिससे राजा की आज्ञा तीक्ष्ण हो। करता है।
चाणक्य भिक्षा के लिए एक गांव में गया। वहां उसे भिक्षा २४८५.अहवा आणाइविराहणाउ एक्विकियाउ चरिमपदं। नहीं मिली। उस गांव में अनेक आम के वृक्ष और बांस थे।
पावइ तेण उ नियमो, पच्छित्तिहरा अइपसंगो॥ चाणक्य ने आज्ञा की स्थापना के लिए, उस गांव वालों के अथवा आज्ञा, अनवस्था, मिथ्यात्व और विराधना में पास राजा का एक आदेश भेजा-आम के वृक्षों को उखाड़ चरमपद है विराधना। विराधना के दो प्रकार हैं-आत्म- कर बांस के चारों तरफ बाड़ लगा दें। यह आदेश गांव वालों विराधना और संयमविराधना। उसके एक-एक से चरमपद के पास पहुंचा। उन्होंने सोचा-राजाज्ञा दुर्लिखित है। गांव प्रायश्चित्त आता है। इसलिए यह नियम है कि जो वहां वालों ने बांस का छेदन कर आम के चारों ओर उनकी बाड़ ठहरता है उसके स्थान प्रायश्चित्त ही आता है, प्रतिसेवना लगा दीं। चाणक्य ने यह देखा। उसने गांव वालों को प्रायश्चित्त नहीं। अन्यथा अतिप्रसंग होगा।
उपालंभ देते हुए कहा यह क्या किया? आज्ञा का पालन २४८६.नत्थि खलु अपच्छित्ती,
क्यों नहीं किया? पुरुषों से बाड बनाई। गांव को जला एवं न य दाणि कोइ मुच्चिज्जा। डाला। कारि-अकारीसमया,
२४९०.एगमरणं तु लोए, आणऽइआरुत्तरे अणंताई। एवं सइ राग-दोसा य॥
अवराहरक्खणट्ठा, तेणाणा उत्तरे बलिया।
१. प्रसज्जना होती है अर्थात् मुनि को वहां बैठा देखकर कोई स्त्री सोच सकती है कि यह मुनि प्रतिसेवना के लिए यहां बैठा है। उससे भोजिक आदि का
दोष प्रसंग होता है। यह प्रसज्जना प्रति प्रायश्चित्त के लिए होती है। २.देखें कथा परिशिष्ट, नं.७३।
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