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पहला उद्देशक
लोक में आज्ञा का अतिक्रमण करने पर एक बार ही मरना होता है। लोकोत्तर आज्ञा का अतिक्रमण करने पर अनंत जन्म-मरण प्राप्त होते हैं। इसलिए लोकोत्तर में अपराध की रोकथाम के लिए आज्ञा बलवान होती है। २४९१.अणवत्थाए पसंगो, मिच्छत्ते संकमाइया दोसा।
दुविहा विराहणा पुण, तहियं पुण संजमे इणमो॥ यह बहुश्रुत मुनि भी सागारिक प्रतिश्रय में रहता है तो मैं क्यों न रहूं-इस प्रकार अनवस्था का प्रसंग उपस्थित होता है। शंका आदि दोष के कारण मिथ्यात्व का प्रसंग आता है। विराधना के दो प्रकार हैं-संयमविराधना और आत्म- विराधना। संयमविराधना यह है२४९२.अणट्ठादंडो विकहा, वक्खेवो विसोत्तियाए सइकरणं।
___ आलिंगणाइदोसा, असन्निहिए ठायमाणस्स॥
अनर्थदंड-ज्ञान आदि की हानि, विकथा, व्याक्षेप-प्रतिमा को देखने से सूत्रार्थ का परिमंथ, विस्रोतसिका, स्मृतिकरण, आलिंगन आदि दोष ये सारे असन्निहित प्रतिमा वाले उपाश्रय में रहने से होते हैं। २४९३.सुट्ट कया अह पडिमा,
विणासिया न वि य जाणसि तुमं पि। इय विकहा अहिगरणं,
आलिंगणे भंगे भहितरा॥ प्रतिमा को देखकर विकथा करते हुए एक कहता है यह प्रतिमा सुन्दर बनाई है। दूसरा कहता कहता है-इस प्रतिमा का विनाश कर डाला। तुम कुछ भी नहीं जानते। इस विकथा से अधिकरण का प्रसंग आता है। प्रतिमा का आलिंगन करने पर प्रतिमा का भंग हो सकता है। इससे भद्रक अर्थात् प्रतिमा का हस्तभंग आदि होने पर भद्रक हो तो पुनः उसका संस्थापन करना होता है और इतर अर्थात् प्रान्त हो तो ग्रहण, आकर्षण आदि दोष होता है। २४९४.वीमंसा पडिणीयट्ठया व भोगत्थिणी व सन्निहिया।
काणच्छी उक्कंपण, आलाव निमंतण पलोभे॥ देवता द्वारा सन्निहित प्रतिमावाले उपाश्रय में रहने से उपरोक्त दोष तो होते ही हैं, ये दोष और अधिक होते हैं जो देवता सन्निहित है वह साधु को तीन कारणों से प्रलुब्ध करती है-विमर्श से (जिज्ञासा से), प्रत्यनीकता से तथा भोगार्थिता से। पहले प्रतिमा-स्थित देवी यह विमर्श करती है कि क्या मैं इस मुनि को पथच्युत कर सकती हूं या नहीं। फिर वह प्रतिमा में प्रवेश कर काणाक्षी-कटाक्ष करती है, १. सन्निहित अर्थात् देवता द्वारा अधिष्ठित। असन्निहित अर्थात देवता
द्वारा अनधिष्ठित।
स्तनों को प्रकंपित करती है, आलाप करती है, फिर निमंत्रण देती हुई कहती है-स्वामिन् ! मेरे साथ भोग भोगें और वह . कक्षान्तर आदि दिखाकर मुनि को प्रलुब्ध करती है। २४९५.काणच्छिमाइएहिं, खोभिय उद्धाइयस्स भद्दा उ।
नासइ इयरो मोहं, सुवण्णकारेण दिळंतो॥ कटाक्ष आदि से क्षुब्ध मुनि उसको पकड़ने के लिए दौड़ता है तो यदि वह देवी भद्र है तो वह अदृश्य हो जाती है। साधु उसके प्रति मोहग्रस्त हो जाता है। यहां स्वर्णकार का दृष्टांत वक्तव्य है। २४९६.वीमंसा पडिणीया,विद्दरिसण-ऽक्खित्तमादिणो दोसा।
__ असंपत्ती संपत्ती, लग्गस्स य कड्डणादीणि॥
प्रत्यनीक देवी भी मुनि को विमर्श कटाक्ष आदि से क्षुब्ध करती है, मुनि जब उसे पकड़ने दौड़ता है। तब वह उसके हाथ में न आकर अपना विकृतरूप दिखाती है अथवा वह साधु के क्षिप्तचित्त आदि दोषों को पैदा कर देती है अथवा परिभोगसंपत्ति करती है। साधु को देवी के साथ लगा हुआ देखकर स्वामी या अन्य उसको पकड़ लेता है, उसको राजा आदि के पास ले जाता है। २४९७.पंता उ असंपत्तीइ चेव मारिज्ज खेत्तमादी वा।
संपत्तीइ वि लाएतु कड्ढणादीणि कारेज्जा॥ जो प्रान्त देवी है वह इस प्रकार की चेष्टा करने वाले साधु को, बिना संप्राप्ति के ही मार देती है अथवा उसमें क्षिप्तचित्त आदि दोष उत्पन्न कर देती है। संप्राप्ति में भी उसको पकड़ कर राजा आदि के पास ले जाया जाता है। २४९८.भोगत्थी विगए कोउगम्मि खित्ताइ दित्तचित्तं वा।
दह्रण व सेवंतं, देउलसामी करेज्ज इमं॥ २४९९.तं चेव निट्ठवेई, बंधण निच्छुभण कडगमहे अ।
आयरिए गच्छम्मि य, कुल गण संघे य पत्थारो॥ भोगार्थी देवी मुनि के साथ भोग भोगकर भोगविषयक कौतुक समाप्त हो जाने पर 'दूसरी देवी के साथ भोग न भोगे' यह सोचकर उस मुनि को क्षिप्तचित्त, दृप्तचित्त या यक्षाविष्ट कर देती है। अथवा देवता के साथ भोग भोगते साधु को देखकर देवकुल का स्वामी उसके साथ इस प्रकार करता है-वह साधु के साथ मारपीट करता है, उसको बांध देता है, अथवा उसको नगर के बाहर निकाल देता है अथवा कटकमद-एक साधु के अपराध के कारण समस्त साधुवर्ग को मार देता है, अथवा उसके आचार्य, गच्छ, कुल, गण, संघ का प्रस्तार-विनाश कर देता है। २. आवश्यक, हारिभद्रीया टीका पत्र २९६।
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