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=बृहत्कल्पभाष्यम्
२५००.गिण्हणे गुरुगा छम्मास कडणे छेदो होइ ववहारे।
पच्छाकडम्मि मूलं, उड्डहण-विरुंगणे नवमं॥ २५०१.उद्दावण निव्विसए, एगमणेगे पदोस पारंची।
अणवठ्ठप्पो दोसु उ, दोसु उ पारंचिओ होइ॥ यदि देवकुल का स्वामी प्रतिसेवना करते हुए मुनि को पकड़ता है तो चार गुरुमास, हाथ या वस्त्र खींच कर राजकुल ले जाता है तो षडलघु, साधु द्वारा प्रत्याकर्षित करने पर षड्गुरुमास, व्यवहार प्रारंभ होने पर छेद, पश्चात्कृत अर्थात् पराजित होने पर मूल, उड्डहन-गधे पर बिठाए जाने पर या विरूप बनाने पर अर्थात् नाक आदि काटने पर नौवां प्रायश्चित्त-अनवस्थाप्य, एक या अनेक साधुओं का प्रद्वेष से अपद्रावण, या देश-निष्काशन होने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। इस प्रकार उनको उड्डहन तथा विरूप किए जाने पर इन दोनों में अनवस्थाप्य, तथा इन दोनों में अपद्रावण या देशनिष्काशन होने पर पारांचिक प्रायश्चित्त आता है। २५०२.एयस्स नत्थि दोसो,
अपरिक्खियदिक्खगस्स अह दोसो। इति पंतो निव्विसए,
उद्दवण विरुंचणं व करे॥ अथवा प्रद्विष्ट होने पर कहा जाता है-इस मुनि का दोष नहीं है, किन्तु इसकी परीक्षा किए बिना जिस आचार्य ने इसको दीक्षित किया है उसका दोष है, यह सोचकर वह प्रान्त व्यक्ति आचार्य को देश से निष्काशन अथवा अपद्रावण या विरूंपन-कर्ण-नासा आदि का छेदन कर दिया जाता है। २५०३.तत्थेव य पडिबंधो, अदिट्ठगमणाइ वा अणितीए।
__ एए अन्ने य तहिं, दोसा पुण होति सन्निहिए॥
अथवा वहीं उसी देवी में मुनि का प्रतिबंध हो जाता है अथवा वह व्यन्तरी अदृष्ट हो जाए, पुनः न आए, तब वह मुनि प्रतिगमन आदि कर सकता है। ये तथा इसी प्रकार के अन्य दोष प्रतिमारूप सन्निहित उपाश्रय में होते हैं। २५०४.कटे पुत्थे चित्ते, दंतकम्मे य सेलकम्मे य।
दिट्ठिप्पत्ते रूवे, वि खित्तचित्तस्स भंसणया॥ सन्निहित प्रतिमाओं के ये प्रकार हैं-काष्ठमयी, पुस्तमयी, चित्रमयी, दन्तकर्ममयी, शैलकर्ममयी। इनका रूप देखने मात्र से क्षिप्तचित्त मुनि की संयमजीवन से भंसना हो जाती है। २५०५.सुहविन्नवणा सुहमोयगा य
सुहविन्नवणा य होति दुहमोया। दुहविन्नप्पा य सुहा,
दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥
सन्निहित देवियों के ये चार प्रकार हैं-(१) सुखविज्ञपनासुखमोचा। (२) सुखविज्ञपना-दुःखमोचा, (३) दुःखविज्ञपनासुखमोचा (४) दुःखविज्ञपना-दुःखमोचा। (विज्ञपना का अर्थ है-प्रार्थना या प्रतिसेवना।) २५०६.सोपारयम्मि नगरे, रन्ना किर मग्गितो उ निगमकरो।
अकरो त्ति मरणधम्मा, बालतवे धुत्तसंजोगो॥ २५०७.पंच सय भोइ अगणी, अपरिग्गहि सालिभंजि सिंदूरे।
तुह मज्झ धुत्त पुत्तादि अवन्ने विज्जखीलणया।। प्रथम विकल्प में यह दृष्टांत है
सोपारक नगर के राजा ने निगमों (विशेष वणिकों) को कर देने के लिए कहा। उन्होंने राजा से कहा-हम अकर हैं। आज हम कर देंगे तो वह सदा-सदा के लिए लागू हो जाएगा। हम कर नहीं देंगे। उन्होंने कर देने के बदले अग्नि में प्रवेश कर मरना श्रेयस्कर समझा। वे सब अग्नि में प्रवेश कर मर गए। उनकी पत्नियां भी अग्नि में प्रवेश कर मर गईं। सभी बालतप के कारण मरकर अपरिगृहीत देवियां बनीं। वहां एक सिन्दूर की भांति लाल देवकुल था। वहां पांच सौ पुतलियां थीं। उन देवियों ने इन पुतलियों में प्रवेश कर डाला। वे सभी वहां स्थित धूर्तों से संप्रलग्न हो गईं। 'यह तुम्हारी है, यह मेरी है' इस प्रकार धूर्तों में विवाद होने लगा। उन सबका पूर्वभव वृत्तांत सुनकर यह हमारा अवर्णवाद है, यह मानकर उन्होंने विद्याप्रयोग से सबको कीलित कर डाला। २५०८.बिइयम्मि रयणदेवय, तइए भंगम्मि सुइगविज्जाओ।
गोरी-गंधाराइ, दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥ दूसरे भंग में रत्न देवी का निदर्शन है। वह अल्प ऋद्धिवाली तथा कामातुर देवी थी। वह सुखविज्ञपना और दुःखमोचा थी। तीसरे भंग में शुचिभूत विद्यादेवियों का निदर्शन है। वे शुचिभूत और महर्द्धिक होने के कारण दुःखविज्ञपना होती हैं। वे उग्ररूप नित्य अप्रमत्त साधक द्वारा आराधनीय होती हैं। अन्त में अपाय के कारण सुखमोचा होती हैं। चौथे भंग में गौरी, गान्धारी आदि मातंग विद्यादेवियां आती हैं। वे लोक-गर्हित होने के कारण दुःखविज्ञप्या और दुःखमोचा होती हैं। २५०९.तिण्ह वि कतरो गुरुतो, पागइ कोडुबि दंडिए चेव।
साहस अपरिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया। शिष्य ने पूछा-भंते! प्राजापत्य, कौटुंबिक और दंडिकपरिगृहीत-इन तीनों में कौन सा गुरुतर है? शिष्य ही कहता है-मैं मानता हूं कि प्राजापत्य परिगृहीत प्रतिमा ही गुरुतर होती है, शेष दोनों लघुतर। क्योंकि साहस अर्थात् प्राकृत जन मूर्खता से साहसिक और अपरीक्षितकारी होता है।
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