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पहला उद्देशक
=२५५ अनीश्वर होने के कारण उसमें भय नहीं रहता, अतः वह आचार्य ने कहा इस अपराध में नृप प्रस्तार कटकमर्द कर साधु को मार भी सकता है। शेष दोनों कौटुंबिक और दंडिक सकता है। इसलिए प्रायश्चित्त भी अधिक है। रागभाव भी प्राकृत के प्रतिपक्षभूत हैं। आचार्य कहते हैं-दंडिक और वस्तु के आधार पर होता है। कौटुंबिक गुरुतर हैं, क्योंकि उनका प्रभु राजा होता है। वह २५१५.जइभागगया मत्ता, रागादीणं तहा चओ कम्मे। एक साधु पर रुष्ट होता है तो सारे संघ का विनाश कर
रागाइविहुरया वि हु, पायं वत्थूण विहुरत्ता॥ देता है।
मुनि की राग आदि की मात्रा जितने भाग में होती है, २५१०.ईसरियत्ता रज्जा व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ। कर्म का चय भी उसी मात्रा में होता है। राग आदि की मात्रा
ते य समिक्खियकारी, अण्णा वि य सिं बहू अत्थि॥ का वैषम्य भी प्रायः वस्तु की विधुरता-सुंदर, सुंदरतर या इसके प्रतिपक्ष में कहा जाता है ये ऋषि मन्युप्रहरण- सुंदरतम के आधार पर होती है। क्रोधरूपी शस्त्र वाले होते हैं। कौटुंबिक सोचता है ये कुपित २५१६.माणुस्सं पि य तिविहं, जहन्नगं मज्झिमं च उक्कोसं। होकर मुझे ऐश्वर्य से च्युत कर सकते हैं। राजा सोचता है ये पायावच्च-कुटुंबिय-दंडियपारिग्गहं
चेव॥ मुझे राज्यच्युत कर सकते हैं। राजा आदि समीक्षितकारी मनुष्यणी के भी तीन प्रकार हैं-जघन्य, मध्यम और होते हैं। उनके अन्यत्र भी अनेक प्रतिमाएं होती हैं। उनका उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं-प्राजापत्यपरिगृहीत एक के प्रति ही अनादर नहीं होता।
कौटुंबिकपरिगृहीत और दंडिकपरिगृहीत। २५११.पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ। २५१७.उक्कोस माउ-भज्जा, मज्झं पुण भगिणि-धूतमादीयं। पागइओ पुण तस्स व,निवस्स व भया न पडिकुज्जा॥
खरियादी य जहन्नं, पगयं सजितेतरे देहे। राजा प्रस्तारदोषकारी होता है। राजा के प्रति किया उत्कृष्ट है-माता और भार्या। मध्यम है-भगिनी, दुहिता, जाने वाला अपराध बहुत लोगों को ज्ञात हो जाता है। इसी पौत्री आदि और जघन्य है-खरिका दासी आदि अन्य प्रकार कौटुंबिक का भी होता है। प्राकृतापराध अनेक स्त्रियां। यहां अधिकार है-देहयुत सजीव अथवा अजीव। व्यक्तियों का स्पर्श नहीं करता। प्राकृतजन संयत या राजा के २५१८.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्घाया। भय से कुछ प्रत्युपकार नहीं करता।
छम्मासाऽणुग्घाया, बिइए तइए भवे छेदो॥ २५१२.अवि य हु कम्मद्दण्णो, न य गुत्ती ओ सि नेव दारट्ठा। प्रथम स्थान अर्थात् जघन्य मनुष्यणी वाले स्थान में रहने
तेण कयं पिन नज्जइ, इतरत्थ पुणो धुवा दोसा॥ से चार अनुद्घातमास का प्रायश्चित्त आता है। द्वितीय तथा प्राकृत जन अपने कार्य (खेतीबाड़ी) आदि में इतना अर्थात् मध्यम में छह अनुद्घातमास और तीसरे अर्थात् लगा रहता है कि उसे अदन्न-क्षणभर का भी अवकाश उत्कृष्ट में छेद प्रायश्चित्त का विधान है। नहीं मिलता। उसकी देवालयों के प्रति .गुप्ति नहीं है, न २५१९.पढमस्स तइयठाणे, छम्मासुग्घाइओ भवे छेदो। वहां द्वारपाल ही है। कोई प्रतिमा की प्रतिसेवना करता चउमासो छम्मासो, बिइए तइए अणुग्घाओ॥ है, वह भी ज्ञात नहीं होता। इतरत्र अर्थात् दंडिक और प्रथम अर्थात् प्राजापत्यपरिगृहीत के तृतीय अर्थात् कौटुंबिक के प्रति अपराध से ध्रुव दोष होते हैं, वे ज्ञात हो उत्कृष्ट स्थान में रहने पर षाण्मासिक उद्घातिक छेद। जाते हैं।
द्वितीय कौटुंबिकपरिगृहीत का तृतीय स्थान अर्थात् उत्कृष्ट २५१३.रन्नो य इत्थियाए, संपत्तीकारणम्मि पारंची। स्थान में चतुर्गुरुक छेद और दंडिकपरिगृहीत के तृतीय स्थान
अमच्ची अणवठप्पो, मूलं पुण पागयजणम्मि॥ में पाण्मासिक अनुद्घातिक छेद का प्रायश्चित्त है। राजा की स्त्री अग्रमहिषी में जो मैथुनसंपत्ति लक्षण २५२०.पढमिल्लुगम्मि तवऽरिह, कारण में पारांचिक, अमात्य की पत्नी में अनवस्थाप्य और
दोहि वि लहु होति एते पच्छित्ता। प्राकृतजन की स्त्री में मूल प्रायश्चित्त का विधान है।
बिइयम्मि य कालगुरू, २५१४.तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणाय कीस कया।
तवगुरुगा होति तइयम्मि॥ जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्ज॥ प्रथम-प्राजापत्यपरिगृहीत के जघन्य और मध्यम स्थान शिष्य पूछता है-स्त्रियों में मैथुनभाव की तुल्यता होने पर में रहने पर जो तपोर्ह प्रायश्चित्त-चतुर्गुरु और षड्गुरु-ये भी यह आरोपणा–प्रायश्चित्त का नानात्व क्यों किया गया? तप और काल-दोनों से लघु होते हैं, कौटुंबिकपरिगृहीत में वे १. प्रस्तारदोषकारी-कटकमर्द करने के अधिकार से संपन्न। कटकमर्द का अर्थ है-एक के अपराध पर सबको मौत के घाट उतार देना।
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