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बृहत्कल्पभाष्यम्
ही तप और काल से गुरु और दंडिकपरिगृहीत में वे ही तप इतना ही है कि दिव्य प्रतिमा में आलिंगन आदि से होने वाले से गुरु और काल से लघु होते हैं। (यह सारा स्थान- जो प्रतिमा भंग आदि दोषों को छोड़कर देहयुत मानुष्यक की प्रायश्चित्त है।)
प्रतिसेवना से शेष दोष होते हैं। २५२१.चउगुरुका छग्गुरुका, छेदो मूलं जहण्णए होइ।। २५२६.आलिंगते हत्थाइभंजणे जे उ पच्छकम्मादी। छग्गुरुक छेअ मूलं, अणवठ्ठप्पो अ मज्झिमए॥
ते इह नत्थि इमे पुण, नक्खादिविछेअणे सूया। २५२२.छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होइ पारंची। लेप्य प्रतिमा के आलिंगन से जो हाथ-पैर आदि के टूट
एवं दिट्ठमदिढे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं॥ जाने पर पश्चात्कर्म आदि जो दोष कहे गए हैं वे देहयुत प्रथम के जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु, दृष्ट में मानुष्यणी के आलिंगन में नहीं होते। किन्तु ये दोष होते षड्गुरु। द्वितीय में जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना षण्मासगुरु, हैं-वह कामातुर स्त्री उस साधु के शरीर को अनेक स्थानों दृष्ट में छेद। तृतीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट पर नखों से विच्छेदन करती है। इससे यह सूचा होती है कि में मूल।
यह श्रमण प्रतिसेवक है। प्रथम के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना षण्मासगुरु, दृष्ट में २५२७.सुहविन्नप्पा सुहमोइगा य छेद। द्वितीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट में मूल।
सुहविन्नप्पा य होति दुहमोया। तृतीय के मध्यम अदृष्ट प्रतिसेवना मूल, दृष्ट में
दुहविन्नप्पा य सुहा, अनवस्थाप्य।
दुहविन्नप्पा य दुहमोया॥ प्रथम के उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना छेद, दृष्ट में मूल। मानुषी के ये चार विकल्प हैंद्वितीय के उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना मूल, दृष्ट में १. सुखविज्ञप्या-सुखमोच्या। अनवस्थाप्य। तृतीय में उत्कृष्ट अदृष्ट प्रतिसेवना में २. सुखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। अनवस्थाप्य, दृष्ट में पारांचिक। इस प्रकार दृष्ट-अदृष्ट ३. दुःखविज्ञप्या-सुखमोच्या। प्रतिसेवना करने वाले के प्रसज्जना तथा भोजिक आदि की ४. दुःखविज्ञप्या-दुःखमोच्या। शंका को छोड़कर यह प्रायश्चित्त है।
२५२८.खरिया महिड्डिगणिया, अंतेपुरिया य रायामाया य। २५२३.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवट्ठो तइए पारंची। उभयं सुहविन्नवणा, सुमोय दोहिं पि य दुमोया।।
तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची॥ पहले विकल्प का उदाहरण हे दासी, दूसरी का महर्द्धिका जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के गणिका, तीसरे का अंतःपुरिका और चौथे का उदाहरण है चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में । राजमाता। पहला विकल्प दोनों सुखपूर्वक, दूसरे में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में सुखविज्ञपना पर दुःखमोच्या, तीसरे में सुखमोच्या पर षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो दुःखविज्ञपना और चौथे में दोनों दुःखपूर्वक होते हैं। वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट २५२९.तिण्ह वि कयरो गुरुओ, पागय कोडुबि दंडिए चेव। में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है।
साहस असमिक्ख भए, इयरे पडिपक्ख पभु राया। २५२४.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ इक्किक्के। शिष्य ने पूछा-भंते! प्राजापत्य, कौटुंबिक और दंडिक
चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य आणाइनिप्फन्नं। परिगृहीत-इन तीनों में कौन सा गुरुतर है ? शिष्य ही कहता प्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में है-मैं मानता हूं कि प्राजापत्य परिगृहीत स्त्रियां ही गुरुतर प्रसज्जना होती है। चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से होती है, शेष दोनों लघुतर। क्योंकि साहस अर्थात् प्राकृत दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक जन मूर्खता से साहसिक और अपरीक्षितकारी होता है। प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी अनीश्वर होने के कारण उसमें भय नहीं रहता, अतः वह आता है।
साधु को मार भी सकता है। शेष दोनों-कौटुंबिक और दंडिक २५२५.ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणिय पुब्विं। प्राकृत के प्रतिपक्षभूत हैं। आचार्य कहते हैं दंडिक और
आलिंगणाइ मोत्तुं, माणुस्से सेवमाणस्स॥ कौटुंबिक गुरुतर हैं, क्योंकि उनका प्रभु राजा होता है। वह वे ही अर्थात् अनवस्था-मिथ्यात्व आदि मनुष्यणी संबंधी एक साधु पर रुष्ट होता है तो सारे संघ का विनाश कर दोष होते हैं जो पूर्व गाथा (२४८७) में कहे गए हैं। अन्तर देता है।
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