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पहला उद्देशक =
= २५७
कार्य में ला गुप्ति भी ननयों के प्रा
२५३०.ईसरियत्ता रज्जा, व भंसए मन्नुपहरणा रिसओ।
ते य समिक्खियकारी, अन्ना वि य सिं बहू अत्थि॥ इसके प्रतिपक्ष में कहा जाता है-ये ऋषि मन्युप्रहरणक्रोधरूपी शस्त्र वाले होते हैं। कौटुंबिक सोचता है ये कुपित होकर मुझे ऐश्वर्य से च्युत कर सकते हैं। राजा सोचता है ये मुझे राज्यच्युत कर सकते हैं। राजा आदि समीक्षितकारी होते हैं। उनके अन्यत्र भी अनेक स्त्रियां होती हैं। उनका एक के प्रति ही अनादर नहीं होता। २५३१.पत्थारदोसकारी, निवावराहो य बहुजणे फुसइ।
पागइओ पुण तस्स व,निवस्स व भया न पडिकुज्जा॥ राजा प्रस्तारदोषकारी होता है। राजा के प्रति किया जाने वाला अपराध बहुत लोगों को ज्ञात हो जाता है। इसी प्रकार कौटुंबिक का भी होता है। प्राकृतापराध अनेक व्यक्तियों का स्पर्श नहीं करता। प्राकृतजन संयत या राजा के भय से कुछ प्रत्युपकार नहीं करता। २५३२.अवि य हु कम्मद्दण्णा, न य गुत्तीओ सि नेव दारट्ठा।
तेणं कयं पि न नज्जइ, इतरत्थ पुणो धुवो दोसो॥ प्राकृत जन अपने कार्य में लगा रहता है। उसे क्षणभर का भी अवकाश नहीं रहता। उनमें गुप्ति भी नहीं होती और वर्जना करने वाला भी नहीं होता। उसके द्वारा स्त्रियों के प्रति किया जाने वाला अनर्थ ज्ञात नहीं होता। इतरत्र किये जाने वाला दोष जनता को ज्ञात हो जाता है। २५३३.तुल्ले मेहुणभावे, नाणत्ताऽऽरोवणा उ कीस कया।
जेण निवे पत्थारो, रागो वि य वत्थुमासज्जा॥ शिष्य पूछता है-स्त्रियों में मैथुनभाव की तुल्यता होने पर भी यह आरोपणा-प्रायश्चित्त का नानात्व क्यों किया गया? आचार्य ने कहा-इस अपराध में नप प्रस्तार-कटकमर्द कर सकता है। इसलिए प्रायश्चित्त भी अधिक है। रागभाव भी वस्तु के आधार पर होता है। २५३४.तेरिच्छे पि य तिविहं, जहन्नयं मज्झिमं च उक्कोसं। पायावच्च-कुडुंबिय-दंडियपारिग्गहं
चेव॥ तिर्यंचस्त्रियों के भी रूप तीन प्रकार के हैं-जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। प्रत्येक के तीन-तीन भेद हैं- प्राजापत्यपरिगृहीत, कौटुंबिकपरिगृहीत और दंडिक-परिगृहीत। २५३५.अइय अमिला जहन्ना,
खरि महिसी मज्झिमा वलवमादी। गोणि करेणुक्कोसा,
पगयं सजितेतरे देहे॥ जघन्यरूप-छगलिका, एडका। मध्यम-गधी, महिषी, घोड़ी आदि। उत्कृष्ट गाय, हथिनी। इन तीनों के दो-दो
प्रकार हैं-प्रतिमायुत और देहयत। प्रस्तुत में सजीव तथा इतर अर्थात् अजीव देहयुत का अधिकार है। २५३६.चत्तारि य उग्घाया, जहन्नए मज्झिमे अणुग्धाया।
छम्मासा उग्घाया, उक्कोसे ठायमाणस्स॥ प्राजापत्यपरिगृहीत आदि जघन्य देहयुत तिर्यंची वाले स्थान पर रहने से चार उद्घातमास, मध्यम में चार अनुद्घात और उत्कृष्ट स्थान में रहने पर षण्मासउद्घात का प्रायश्चित्त है। २५३७.पढमिल्लुगम्मि ठाणे, दोहि वि लहुगा तवेण कालेणं।
बिइयम्मि उ कालगुरू, तवगुरुगा होति तइयम्मि। प्रथम स्थान में रहने पर जो प्रायश्चित्त आता है वह तप और काल से लघु होता है। दूसरे में कालगुरु और तीसरे में तपःगुरु। २५३८.चउरो लहुगा गुरुगा, छेदो मूलं जहन्नए होइ।
चउगुरुग छेद मूलं, अणवट्ठप्पो य मज्झिमए॥ २५३९.छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होइ पारंची।
एवं दिट्ठमदिद्वे, सेवंते पसज्जणं मोत्तुं॥ प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्लघु। प्राजापत्यपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु। कौटुंबिकपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना चतुर्गुरु। कौटुंबिकपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य अदृष्ट प्रतिसेवना छेद। दंडिकपरिगृहीत जघन्य दृष्ट प्रतिसेवना मूल। प्रथम मध्यम अदृष्ट चतुर्गुरु, दृष्ट छेद। द्वितीय मध्यम अदृष्ट छेद, दृष्ट मूल । तृतीय मध्यम अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य। प्रथम उत्कृष्ट अदृष्ट छेद, दृष्ट मूल। द्वितीय उत्कृष्ट अदृष्ट मूल, दृष्ट अनवस्थाप्य।
तृतीय उत्कृष्ट अदृष्ट अनवस्थाप्य, दृष्ट पारांचिक। यह प्रायश्चित्त दृष्ट-अदृष्ट की प्रसज्जना को छोड़कर कहा गया है। २५४०.जम्हा पढमे मूलं, बिइए अणवठ्ठो तइए पारंची।
तम्हा ठायंतस्सा, मूलं अणवट्ठ पारंची। जिससे प्रथम अर्थात् जघन्य की प्रतिसेवना करने वाले के चतुर्लघु से प्रारंभ कर मूल पर्यन्त, द्वितीय अर्थात् मध्यम में चतुर्गुरु से अनवस्थाप्य पर्यन्त और तृतीय अर्थात् उत्कृष्ट में षड्लघु से पारांचिक पर्यन्त प्रायश्चित्त आता है। इसीलिए जो वहां रहता है उसके स्थाननिष्पन्न जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट में मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त विहित है।
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