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बृहत्कल्पभाष्यम् २५४१.पडिसेवणाए एवं, पसज्जणा तत्थ होइ इक्केक्के । (एक सिंहनी ऋतुकाल में मैथुनार्थी हो गई। उसे कोई
चरिमपदे चरिमपदं, तं पि य अणाइनिप्फन्नं॥ सिंह न मिलने पर, वह किसी एक सार्थ से एक पुरुष को प्रतिसेवना में ये प्रायश्चित्त हैं। प्रत्येक प्रायश्चित्त में उठाकर अपने गुफा में ले आई और उसकी चाटुकारिता करने प्रसज्जना होती है। चरमपद का अर्थ है-अदृष्टपद से लगी। पुरुष ने सिंहनी के साथ मैथुन प्रतिसेवना की। दोनों में दृष्टपद और उस प्रायश्चित्त का चरमपद है पारांचिक तक अनुराग हो गया। यह क्रम प्रतिदिन चलता रहा। सिंहनी मांस प्रायश्चित्त है। तथा आज्ञाभंग आदि से निष्पन्न प्रायश्चित्त भी के द्वारा उस पुरुष का पोषण करने लगी। पुरुष को अब आता है।
उसका भय नहीं रहा।) २५४२.ते चेव तत्थ दोसा, मोरियआणाए जे भणिय पुब्बिं। २५४७.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो।
आलावणाइ मोत्तुं, तेरिच्छे सेवमाणस्स॥ पुरिसपडिमाउ तासिं, साणम्मि य जं च अणुरागो॥ वे ही दोष जो मौर्य आज्ञा के संदर्भ में पहले कहे गए यही द्रव्य भावसागारिक का क्रम नियमतः श्रमणियों के (गाथा २४८७) तथा मनुष्यद्वार में (२५२५-२५२६) बताए लिए भी ज्ञातव्य है। पुरुष प्रतिमा वाले स्थान में वे न रहें। गए हैं वे होते हैं। केवल आलापना आदि को छोड़कर शेष तिर्यंच पुरुष में श्वान के अनुराग का दृष्टांत है। (एक स्त्री सारे तिर्यंची देहयुत सेवना करने वाले के होते हैं।
एकांत में कायिकी का उत्सर्ग कर रही थी। एक कुत्ते ने २५४३.जह हास-खेड्ड-आगार-बिब्भमा होति मणुयइत्थीसु। उसे देख लिया। वह अपनी पूंछ हिलाता हुआ उसके पास
आलावा य बहुविधा, तह नत्थि तिरिक्खइत्थीसु॥ आया और चाटुकारिता करने लगा। स्त्री ने सोचाजैसे मनुष्यस्त्रियों के साथ हास्य, क्रीडा, आकार, देखती हूं, यह क्या करता है? वह अपनी योनि को विभ्रम, तथा बहुविध आलापक होते हैं, वैसे तिर्यंच स्त्रियों के उस कुत्ते के सामने कर सो गई। कुत्ते ने उसके साथ साथ नहीं होते।
प्रतिसेवना की। स्त्री का कुत्ते के प्रति अनुराग हो गया। २५४४.सुहविण्णप्पा सुहमोइगा य,
इसी प्रकार मृग, बकरा, वानर आदि भी स्त्री की अभिलाषा सुहविष्णप्पा य होति दुहमोया॥ करते हैं।) दुहविण्णप्पा य सुहा,
२५४८.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए। दुहविण्णप्पा य दुहमोया॥
गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए॥ तैरश्ची के चार विकल्प हैं
अध्वनिर्गत श्रमणियों को यदि तीन बार गवेषणा करने १. सुखविज्ञप्या-सुखमोच्या।
पर भी उपयुक्त प्रतिश्रय प्राप्त न हो तो गीतार्थ श्रमणियां २. सुखविज्ञप्या-दुःखमोच्या।
द्रव्य-सागारिक पुरुष उपाश्रय में रह सकती हैं। ३. दुःखविज्ञप्या-सुखमोच्या।
२५४९.जहिं अप्पतरा दोसा, आभरणादीण दूरतो य मिगा। ४. दुःखविज्ञप्या-दुःखमोच्या।
चिलिमिलि निसि जागरणं, गीए सज्झाय-झाणादी॥ २५४५.अमिलाई उभयसुहा, अरहण्णगमाइमक्कडि दुमोया। जहां रूप और आभरण आदि से अल्पतर दोष होते हैं
गोणाइ तइयभंगे, उभयदुहा सीहि-वग्घीओ॥ वहां रहती हैं। मृग की भांति अज्ञ वे आभरण आदि का दूर से अमिला-एडका आदि तिर्यंच उभयसुख वाले होते हैं। ही परिहार करती हैं। चिलिमिलिका आदि बांधकर आवरण अरहन्नक की भाभी का उसके प्रति अनुराग था। वह मरकर कर लेती हैं। रात्री में जागरण करती हैं, जिससे उन बंदरी बनी। वह उसके लिए दुःखमोचा हो गई। तीसरे भंग में प्रतिमाओं को पहनाए गए आभरण कोई चुरा न ले। गीत गाय आदि। ये दुःखविज्ञप्या और सुखमोचा होती हैं। सिंहनी, आदि के शब्द सुनाई देने से जोर-जोर से स्वाध्याय करे, व्याघ्री आदि उभयदुःखा होती हैं।
ध्यान में लीन हो जाए। २५४६.जइ ता सणप्फईसुं, मेहुणभावं तु पावए पुरिसो। २५५०.अदाणनिग्गयादी, वासे सावयभए व तेणभए। ___ जीवियदोच्चा जहियं, किं पुण सेसासु जाईसु॥
आवरिया तिविहे वी. वसंति जयणाए गीयत्था। यदि सनखपदवाली तिर्यंच स्त्रियों में-सिंहनी, व्याघ्री अध्वनिर्गत यदि ग्राम में वसति प्राप्त न हो तो बाह्य आदि जिनमें जीवितदोच्च-प्राणभय बना रहता है, उनमें भी उद्यान में भी ठहरा जा सकता है। वहां ये भय रहते हैं-वर्षा मैथुनभाव को प्राप्त होता है तो फिर शेष तिर्यंचस्त्रियों की तो का भय, चोरों का भय। अतः वे श्रमणियां तीनों प्रकार के बात ही क्या?
सागारिक प्रतिश्रय में, गांव में प्रतिमाओं को आवृत कर रह Jain Education International For Private & Personal Use Only
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