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पहला उद्देशक
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सकती हैं। वहां वे गीतार्थ श्रमणियां यतनापूर्वक वास कर २५५५.ओहे सव्वनिसेहो, सरिसाणुन्ना विभागसुत्तेसु। सकती हैं।
जयणाहेउं भेदो, तह मज्झत्थादओ वा वि॥
ओघसूत्र-सामान्यसूत्र में समस्त सागारिक का निषेध नो कप्पइ निग्गंथाणं इत्थिसागारिए
किया गया है। विभागसूत्रों में सदृश अनुज्ञा दी जाती उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २६) है। यतना संबंधी सूत्रों में स्त्री-पुरुषों का विभाग किया कप्पइ निग्गंथाणं पुरिससागारिए
जाता है। मध्यम सूत्रों में स्त्री-पुरुषों का अर्थतः भेद बताया
जाता है। उवस्सए वत्थए॥ (सूत्र २७)
२५५६. पुरिससागारिए उवस्सयम्मि, नो कप्पइ निग्गंथीणं पुरिससागारिए
चउरो लहुगा य दोस आणादी। उवस्सए वत्थए॥
ते वि य पुरिसा दुविहा, (सूत्र २८)
सविकारा निव्विकारा य॥ कप्पइ निग्गंथीणं इत्थिसागारिए
पुरुष सागारिक उपाश्रय में निर्ग्रथों को रहना कल्पता उवस्सए वत्थए॥
(सूत्र २९) है परंतु सामान्यतः रहना नहीं कल्पता। जो रहते हैं उन्हें
चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। तथा आज्ञाभंग आदि दोष २५५१.अविसिटुं सागरियं, वुत्तं तं पुण विभागतो इणमो। प्राप्त होते हैं। पुरुष दो प्रकार के होते हैं सविकार और मज्झे पुरिससगारं, आदी अंते य इत्थीसु॥
नेय इत्थीस॥ निर्विकार। पूर्वसूत्र में अविशिष्ट (स्त्री-पुरुषविशेष रहित) सागारिक २५५७.रूवं आभरणविहिं, वत्था-ऽलंकार-भोयणे गंधे। की बात कही गई है। प्रस्तुत सूत्र में विभागशः सागारिक की
आउज्ज नट्ट नाडग, गीए अ मणोहरे सुणिया॥ बात कही गई है। मध्यवर्ती सूत्र में पुरुषसागारिक विषयक सविकार पुरुष वे होते हैं जो अपने रूप को संवारते हैं, तथा आदि सूत्र और अन्त्यसूत्र में स्त्रीसागारिक विषयक आभरण-विधि का उपयोग करते हैं, केशों को संवारते हैं, विधि कही गई है।
शरीर को अलंकृत करते हैं, विशेष भोजन करते हैं, गंध का २५५२.इत्थीसागरिए उवस्सयम्मि स च्चेव इत्थिया होइ। प्रयोग करते हैं, बाजे बजवाते हैं, नृत्य करवाते हैं, नाच
देवी मणुय तिरिच्छी, स च्चेव पसज्जणा तत्थ॥ करवाते हैं, मधुर गीत गाते हैं या गवाते हैं। मनोहर रूप स्त्रीसागारिक उपाश्रय में रहना नहीं कल्पता। स्त्री चाहे आदि को देखकर, गीत आदि सुनकर पूर्व देखें रूपों और देवी हो, मानुषी हो या तैरश्ची हो। वहीं प्रसज्जना यहां भी गीतों का स्मरण करते हैं, वे सविकार पुरुष होते हैं। ज्ञातव्य है।
२५५८.एक्वेक्कम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। २५५३.जइ स च्चेव य इत्थी,सोही य पसज्जणा य स च्चेव।
आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमाऽऽयाए।। सुत्तं तु किमारद्धं, चोदग! सुण कारणं इत्थं॥ २५५९.एवं ता सविकारे, निव्वीकारे इमे भवे दोसा। शिष्य ने पूछा-यदि वही स्त्री, वही प्रायश्चित्त और वही
संसद्देण विबुद्धे, अहिगरणं सुत्तपरिहाणी। प्रसज्जना है तो फिर यह स्त्रीसागारिक संबंधी सूत्र का उपरोक्त स्थान में रहने पर प्रत्येक रूप आदि के स्थान आरंभ क्यों? आचार्य ने कहा-शिष्य ! इसके कारण को तुम का प्रायश्चित्त है-चार उद्घातमास (लघु), आज्ञाभंग आदि सुनो।
दोष तथा आत्मविराधना तथा संयमविराधना। ये सविकार २५५४.पुव्वभणियं तु पुणरवि, जं भण्णइ तत्थ कारणं अत्थि।। पुरुष के दोष हैं। निर्विकार पुरुष से संबंधित उपाश्रय में रहने
पडिसेहोऽणुन्ना कारणं विसेसोवलंभो वा॥ के ये दोष हैं--साधुओं के स्वाध्याय आदि के शब्दों से अन्य पहले कहे हुए को जो पुनः कहा जाता है उसका भी। लोग जाग जाते हैं और वे अधिकरण करने में संलग्न हो जाते कारण है। जो पहले अनुज्ञा के आधार पर कहा गया है वही हैं। इससे सूत्रपरिहानि होती है। प्रतिषेध द्वार के द्वारा कहा जा रहा है। जो पहले प्रतिषेध २५६०.आउ ज्जोवण वणिए, किया है, उन्हीं की अनुज्ञा देते हुए पुनः कहा जा रहा है। जो
अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए। पहले सामान्यरूप से कहा गया, वही विशेष उपलंभ के द्वारा
तेणे मालागारे, कहा जाता है।
उन्भामग पंथिए जंते॥
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