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=बृहत्कल्पभाष्यम्
साधुओं तथा गृहस्थों के शब्दों को सुनकर स्त्रियां जाग २५६६.एक्केक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य। जाती हैं और वे पानी लाने चल पड़ती हैं। रथकार बैलों को
एवं सन्नी बारस, बारस अस्सन्निणो होति॥ रथों में जोत कर काम पर चले जाते हैं। वणिक् माल बेचने इन चारों के तीन-तीन प्रकार हैं-स्थविर, मध्यम और ग्रामान्तर चल पड़ते हैं। लोहकार अग्नि जला कर अपना तरुण। इस प्रकार संज्ञी पुरुषों के बारह भेद और असंज्ञी काम करने लगते हैं। कौटुंबिक-कृषक खेतों में जाते हैं। पुरुषों के भी बारह भेद हैं। कुकर्म अर्थात् मत्स्यमार आदि मछलियों को पकड़ने चलते २५६७.काहीयातरुणेसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणस्स। हैं। कुमारक-कसाई अपने काम में लग जाते हैं। चोर और सेसेसुं चउलहुगा, समणाणं पुरिसवग्गम्मि॥ मालाकार तथा उद्भ्रामक व्यक्ति, पथिक तथा यांत्रिक अपनी संज्ञी-असंज्ञी के काथिक तरुण ये दो भेद तथा पुरुषप्रवृत्ति में संलग्न हो जाते हैं।
वेशधारी नपुंसक के काथिक तरुण ये चार भेद-इनमें से २५६१.एवं सुत्तं अफलं, सुत्तनिवाओ उ असइ वसहीए। किसी उपाश्रय में रहने से चतुर्गुरु तथा शेष भेद वाले
गीयत्था जयणाए, वसंति तो दव्वसागरिए॥ उपाश्रय में रहने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यह प्रायश्चित्त यदि ये सारे दोष होते हैं तो पुरुषवाले उपाश्रय में भी पुरुषवर्ग वाले श्रमणों के लिए कहा गया है। साधु को नहीं रहना चाहिए। यदि ऐसा है तो सूत्र अफल हो २५६८.सन्नीसु पढमवग्गे, असती अस्सन्निपढमवग्गम्मि। जाएगा। गुरु बोले-सूत्र का निपात इसलिए है कि यदि
तेण परं सन्नीसुं, कमेण अस्सन्निसुं चेव ।। विशुद्ध वसति की प्राप्ति न हो तो गीतार्थ मुनि यतनापूर्वक निर्दोष वसति की प्राप्ति न होने पर संज्ञी के प्रथम वर्ग द्रव्य सागारिक-पुरुष सागारिक वाले वसति में रहते हैं। अर्थात् मध्यस्थ पुरुषों में रहे। यदि वैसा स्थान न मिले तो २५६२.ते वि य पुरिसा दुविहा, सन्नी अस्सन्निणो य बोधव्वा।। असंज्ञी के प्रथमवर्ग में रहे। उसके अभाव में संज्ञी के द्वितीय
मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥ वर्ग आदि में क्रमशः रहे। उसके अभाव में असंज्ञी के द्वितीय वे भी पुरुष दो प्रकार के होते हैं-संज्ञी और असंज्ञी। वर्ग आदि में क्रमशः रहे। संज्ञी का अर्थ है-श्रावक और असंज्ञी का अर्थ है-अश्रावका २५६९.एवं एक्वेक्क तिगं, वोच्चत्थकमेण होइ नायव्वं । ये दोनों चार-चार प्रकार के होते हैं-मध्यस्थ, आभरणप्रिय, मोत्तूण चरिम सन्नी, एमेव नपुंसएहिं पि॥ कांदर्पिक और काथिका
इस प्रकार एक-एक पद के त्रिक अर्थात् स्थविर, फिर २५६३.आभरणपिए जाणसु, अलंकरिते उ केसमादीणि। मध्यम, फिर तरुण-इनको वैपरीत्यविधि से जानना चाहिए।
सइरहसिय-प्पललिया, सरीरकुइणो य कंदप्पा॥ पर चरमसंज्ञी को छोड़कर। इसी प्रकार नपुंसकों के विषय में २५६४.अक्खाइयाउ अक्खाणगाई गीयाई छलियकव्वाई। भी जानना चाहिए। (वृत्तिकार ने इसका विस्तार किया है।)
कहयंता य कहाओ, तिसमुत्था काहिया होति॥ २५७०.एमेव होति दुविहा, पुरिसनपुंसा वि सन्नि अस्सन्नी। २५६५.एएसिं तिण्हं पी, जे उ विगाराण बाहिरा पुरिसा। मज्झत्थाऽऽभरणपिया, कंदप्पा काहिया चेव॥
वेरग्गरुई निहुया, निसग्गहिरिमं तु मज्झत्था॥ २५७१.एक्केक्का ते तिविहा, थेरा तह मज्झिमा य तरुणा य। जो केश आदि को माल्य आदि से अलंकृत करते हैं वे एवं सन्नी बारस, बारस अस्सन्निणो होति॥ आभरणप्रिय होते हैं। जो स्वेच्छा से अट्टहास आदि करते हैं, इसी प्रकार नपुंसक भी दो प्रकार के हैं-स्त्रीनेपथ्यिक प्रललित-द्यूतक्रीड़ा करते हैं, झूले झूलते हैं और शरीर- और पुरुषनेपथ्यिक। पुरुषनपुंसक दो प्रकार के होते हैं-संज्ञी कुच-विविध प्रकार की नपुंसक चेष्टाएं करते हैं वे कान्दर्पिक और असंज्ञी। दोनों के चार-चार प्रकार हैं-मध्यस्थ, होते हैं। जो आख्यायिका-तरंगवती, मलयवती आदि, आभरणप्रिय, कान्दर्पिक, काथिक। इन चारों के तीन-तीन आख्यानक धूख्यिान आदि, गीत तथा ललितकाव्य- प्रकार हैं-स्थविर, मध्यम और तरुण। इस प्रकार संज्ञी के शृंगारकाव्य, कथा-वसुदेवचरित, चेटक कथा आदि कहते हैं बारह और असंज्ञी के बारह प्रकार होते हैं। तथा त्रिसमुत्थ-धर्म, काम और अर्थ लक्षण वाली कथाएं २५७२.जह चेव य पुरिसेसुं, सोही तह चेव पुरिसवेसेसु। कहते हैं वे काथिक होते हैं। इन तीनों के विकारों से जो रहित
तेरासिएसु सुविहिय!, पडिसेवग-अपडिसेवीसु॥ होते हैं, बाह्य होते हैं वे वैराग्यरुचिवाले, निभृत-जितेन्द्रिय जैसे पुरुषों के विषय में शोधि-प्रायश्चित्त है वही शोधि स्वभावतः लज्जाशील पुरुष मध्यस्थ होते हैं।
पुरुषवेशधारी त्रैराशिक अर्थात् नपुंसकों की है। हे सुविहित
मोग
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