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________________ पहला उद्देशक : २६१ शिष्य! वे नपुंसक दो प्रकार के हैं-प्रतिसेवक और यही क्रम श्रमणियों के लिए नियमतः ज्ञातव्य है। जैसे अप्रतिसेवका श्रमणों के लिए स्त्रियां गुरुकतर होती हैं, वैसे ही श्रमणियों २५७३.जह कारणे पुरिसेसु, के लिए पुरुष गुरुकतर होते हैं। तह कारणे इत्थियासु वि वसेज्जा। २५७९.काहीयातरुणीसुं, चउसु वि चउगुरुग ठायमाणीणं। अद्धाण-वास-सावय-तेणेसु सेसासु वि चउलहुगा, समणीणं इत्थिवग्गम्मि। व कारणे वसती॥ स्त्रियों तथा स्त्रीवेशधारी नपुंसकों के बीच काथिक जैसे कारण में पुरुषों वाले या पुरुषवेशधारी नपुंसकों में तरुणी स्त्रियों के चारों प्रकार के उपाश्रय में रहने पर रहा जा सकता है, उसी प्रकार कारण में स्त्रियों वाले या श्रमणियों को चतुर्गुरु तथा शेष अर्थात् मध्यस्थ आदि के स्त्रीवेशधारी नपुंसक स्त्रियों के उपाश्रय में रहा जा सकता उपाश्रय में रहने से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। यह श्रमणियों के है। कारण की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहा है- लिए स्त्रीवर्ग वाले उपाश्रय में रहने का प्रायश्चित्त है। अध्वान प्रतिगत, वर्षा के समय, श्वापदभय या स्तेनभय के २५८०.काहीयातरुणेसु वि, चउसु वि मूलं तु ठायमाणीणं। होने पर। __ सेसेसु उ चउगुरुगा, समणीणं पुरिसवग्गम्मि॥ २५७४.काहीयातरुणीसुं, चउसु वि मूलं तु ठायमाणाणं। पुरुष तथा पुरुषनपुंसक के संज्ञी-असंज्ञी के प्रत्येक के सेसासु वि चउगुरुगा, समणाणं इत्थिवग्गम्मि॥ जो चार काथिक तरुण आदि भेद हैं, उस उपाश्रय में रहने स्त्रियों के या स्त्रीवेशधारी नपुंसकों के जो चौथे विभाग में पर श्रमणियों को मूल तथा शेष अर्थात् पुरुष तथा पुरुषअर्थात् काथिक तरुण स्त्रियों के उपाश्रय में रहने से मूल का नपुंसक के उपाश्रय में रहने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त आता है। प्रायश्चित्त तथा संज्ञी या असंज्ञी स्त्रियों के उपाश्रय में रहने यह श्रमणियों के पुरुषवर्ग वाले उपाश्रय में रहने पर से चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त है। यह निग्रंथों के स्त्रीवर्ग वाले प्रायश्चित्त है। उपाश्रय में रहने का प्रायश्चित्त है। २५८१.थेराइएसु अहवा, पंचग पन्नरस मासलहुओ य। २५७५.जह चेव य इत्थीसुं, सोही तह चेव इत्थिवेसेसु। छेदो मज्झत्थादिसु, काहियतरुणेसु चउलहुओ॥ तेरासिएसु सुविहिय!, ते पुण नियमा उ पडिसेवी॥ २५८२.सन्नी-अस्सन्नीणं, पुरिस-नपुंसेसु एस साहूणं । हे सुविहितशिष्य! श्रमणों के लिए स्त्रियों के उपाश्रय में एएसुं चिय थीसुं, गुरुओ समणीण विवरीओ। रहने पर जो शोधि कही गई है वही शोधि त्रैराशिक अथवा स्थविर आदि तीन पदों में पंचक, पंचदशक, स्त्रीवेशधारी के लिए जानो। वे स्त्रीनपुंसक नियमतः प्रतिसेवी मासलघु तथा छेद प्रायश्चित्त आता है। मध्यम स्थविर के होते हैं। विषय में भी यही प्रायश्चित्त है। काथिक तरुणों में चतुर्लघु २५७६.एमेव होति इत्थी, बारस सन्नी तहेव अस्सन्नी। प्रायश्चित्त है। इसी प्रकार पुरुष या पुरुषनपुंसक जो संज्ञी सन्नीण पढमवग्गे, असइ असन्नीण पढमम्मि॥ अथवा असंज्ञी हों उनके विषय में यह पंचक से छेदपर्यन्त इस प्रकार स्त्रियां तथा स्त्रीवेशधारी नपुंसक बारह प्रकार प्रायश्चित्त साधुओं के लिए है। यह प्रायश्चित्त श्रमणों के के संज्ञी और बारह प्रकार के असंज्ञी होते हैं। संज्ञी के प्रथम लिए गुरुक और श्रमणियों के लिए वही प्रायश्चित्त विपरीत वर्ग-मध्यस्थ के उपाश्रय की अप्राप्ति होने पर असंज्ञी वर्ग के अर्थात् लघु होता है। प्रथम वर्ग--मध्यस्थ के उपाश्रय में कहा जा सकता है। २५७७.एवं एक्कक्क तिगं, वोच्चत्थकमेण होइ नेयव्वं। पडिबद्धसेज्जा-पदं मोत्तूण चरिम सन्निं, एमेव नपुंसएहिं पि॥ इस प्रकार प्रत्येक वर्ग के त्रिक अर्थात् तरुणी आदि के नो कप्पइ निग्गंथाणं पडिबद्धसेज्जाए भेदत्रिक के विपर्यस्तक्रम से (पहले स्थविर, फिर मध्यम, वत्थए॥ (सूत्र ३०) फिर तरुणी) रहे परंतु चरम अर्थात् काथिक तरुणी संज्ञी को छोड़कर। इसी प्रकार स्त्रीवेशधारी नपुंसक के विषय में २५८३.इति ओह-विभागेणं, सेज्जा सागारिका समक्खाया। जानना चाहिए। तं चेव य सागरियं, जस्स अदूरे स पडिबद्धो।। २५७८.एसेव कमो नियमा, निग्गंथीणं पि होइ नायव्वो। इस प्रकार ओघ और विभाग से सागारिकयुक्त जह तेसि इत्थियाओ, तह तासि पुमा मुणेयव्वा॥ शय्याप्रतिश्रय का आख्यान किया गया है। वही सागारिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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