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________________ पहला उद्देशक ३२७ मुनि रात्री में ही उपाश्रय में आ जाए। रात्री में आने पर कोई जिससे लोग भयभीत हों, मृदु प्रकृतिवाला हो, आर्यिकाओं व्याघात की आशंका हो या दूर हो तो वहीं सोकर प्रातः का शय्यातर ऐसा हो। उपाश्रय में आ जाए। ३२२६.पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहि चिलिमिली उवरिं। तं तह बंधति दारं, जह णं अण्णा ण याणाई। नो कप्पइ निग्गंथीए एगाणियाए राओ आर्यिकाओं के प्रतिश्रय के बाहर एक प्रस्तार-कट और वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा एक भीतर करना चाहिए। भीतर वाले कट पर चिलिमिलिका विहारभूमि वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए बांधनी चाहिए। उससे द्वार को इस प्रकार बांधे की अन्य वा। कप्पइ से अप्पबिइयाए वा साध्वी उसे खोल न सके। अप्पतइयाए वा अप्पचउत्थीए वा राओ वा ३२२७.संथारेगंतरिया, अभिक्खणाऽऽउज्जणा य तरुणीणं। वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा पडिहारि दारमूले, मज्झे अ पवत्तिणी होति॥ विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए आर्यिकाएं एकान्तरित संस्तारक करें-एक तरुण साध्वी, एक वृद्ध साध्वी के क्रम से करें। प्रवर्तिनी और प्रतिहारी वा॥ (सूत्र ४६) बार-बार तरुण साध्वियों की उपयोजना-संघट्टना करे। ३२२२.सो चेव य संबंधो, नवरि पमाणम्मि होइ णाणत्तं।। प्रतिहारी साध्वी द्वारमूल में सोए, मध्य प्रदेश में प्रवर्तिनी जे य जतीणं दोसा, सविसेसतरा उ अज्जाणं॥ सोए। प्रस्तुत सूत्र में भी पूर्व सूत्रोक्त संबंध है। केवल प्रमाण में ३२२८.निक्खमण पिंडियाणं, अग्गहारे य होइ पडिहारी। नानात्व है। मुनियों के लिए जो दोष कहे गए हैं वे ही दारे पवत्तिणी सारणा य फिडिताण जयणाए॥ सविशेषतर रूप में आर्यिकाओं के होते हैं। रात्री में आर्यिकाएं पिंडीभूत होकर उपाश्रय से बाहर ३२२३.बहिया वियारभूमी, णिग्गंथेगाणियाए पडिसिद्धा। निकले। प्रतिहारी द्वार को खोलकर अग्रद्वार में बैठ जाए। चउगुरुगाऽऽयरियादी, दोसा ते चेव आणादी॥ प्रवर्तिनी द्वार पर बैठ कर बाहर से प्रवेश करने वाली साध्वी एकाकिनी आर्यिका का रात्री में बाह्य विचारभूमी- के कपोल और वक्ष का स्पर्श कर उसे प्रवेश दे। जो द्वार से स्वाध्यायभूमी में जाना प्रतिषिद्ध है। यदि यह सूत्र आचार्य भटक गई हों उन्हें यतनापूर्वक मूल द्वार की स्मृति कराए। प्रवर्तिनी को नहीं बताते हैं तो चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी भिक्षुणियों ३२२९.बिइयपद गिलाणाए, तु कारणा अहव होज्ज एगागी। को नहीं कहती है तो चतुर्गुरु और भिक्षुणियां स्वीकार नहीं आगाढे कारणम्मि, गिहिणीसाए वसंतीणं॥ करती हैं तो मासलघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि अपवाद पद में संयती के ग्लान हो जाने पर एकाकी दोष होते हैं। आर्यिका भी विचारभूमी में जा सकती है। अथवा किसी ३२२४.भीरू पकिच्चेवऽबला चला य, कारण से एकाकी हो जाने पर जा सकती है। अब आगाढ़आसंकितेगा समणी उ रातो।। आत्यन्तिक कारण हो जाने पर गृही की निश्रा में रहने वाले मा पुप्फभूयस्स भवे विणासो, आर्यिकाओं की विधि कही जा रही है। सीलस्स थोवाण ण देति गंतुं॥ ३२३०.एगा उ कारण ठिया, अविकारकुलेसु इत्थिबहुलेसु। स्त्री प्रकृति से भीरु, अबला, चंचल होती है। उसे रात्री तुभ वसीहं णीसा, अज्जा सेज्जातरं भणति॥ में अकेली देखकर लोगों में आशंका होती है। पुष्प की एक आर्यिका कारणवश स्त्रीबहुल तथा अविकारकुल में भांति सुकोमल साध्वी के शील का विनाश न हो, स्थित थी। उसने शय्यातर से कहा-'मैं तुम्हारी निश्रा में यहां इसलिए स्तोक अर्थात् एकाकी साध्वी का रात्री में जाना रह रही हूं। निषिद्ध है। ३२३१.अपुव्वपुंसे अवि पेहमाणी, ३२२५.गुत्ते गुत्तदुवारे, कुलपुत्ते इत्थिमज्झे निहोसे। वारेसि धूतादि जहेव भज्ज। भीतपरिस महविदे, अज्जा सिज्जायरे भणिए॥ तहाऽवराहेसु मम पि पेक्खे, साध्वियों का उपाश्रय गुप्त-वृति आदि से परिक्षिप्त हो, जीवो पमादी किमु जोऽबलाणं॥ गुप्तद्वार-कपाटवाला हो, शय्यातर कुलपुत्र हो। वह उपाश्रय हे आर्य शय्यातर! जैसे तुम बेटी, भगिनी तथा भार्या को स्त्रीवाले गृहों के मध्य हो, निर्दोष हो। शय्यातर ऐसा हो अदृष्टपूर्वपुरुषों की ओर देखती हुई का वर्जन करते हो वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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