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________________ ३२६ बृहत्कल्पभाष्यम् उपधि का या स्वयं का अपहरण कर लेते हैं। आरक्षिक उस तीन मुनि हैं। एक ग्लान हैं। एक मुनि ग्लान के पास एकाकी मुनि को चोर समझ कर पकड़ लेते हैं। श्वापद आदि बैठता है दूसरा मुनि पूछकर कायिकी आदि भूमी में जाता है। से मुनि का उपघात-मृत्यु हो सकती है। उसको यदि विलंब हो जाए तो ग्लान के पास स्थित मुनि ३२११.दुप्पभिई उ अगम्मा, ण य सहसा साहसं समायरति। जागते हुए ग्लान मुनि को पूछकर बाहर जाता है। वारेति च णं बितिओ, पंच य सक्खी उ धम्मस्स। ३२१७.जहितं पुण ते दोसा, तेणादीया ण होज्ज पुव्वुत्ता। रात्री में यदि दो-तीन आदि मुनि कायिकीभूमी में जाते हैं एक्को वि णिवेदेतुं, णितो वि तहिं णऽतिक्कमति॥ तो वे स्तेन, आरक्षिकों द्वारा अगम्य होते हैं। दो आदि मुनि जो पूर्वोक्त स्तेन आदि के दोष न हों तो अकेला साधु जो होते हैं तो कोई प्रतिसेवना आदि का साहस नहीं कर जाग रहा हो, उसे कहकर यदि वह अकेला भी रात्री में जाता सकता। कोई प्रतिसेवना करनी चाहे तो दूसरा-तीसरा मुनि है तो वह भगवद् आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता। उसे वारित करता है। धर्म के पांच साक्षी होते हैं अर्हन्त, ३२१८.बहिया वियारभूमी, दोसा ते चेव अधिय छक्काया। सिद्ध, साधु, सम्यग्दृष्टि देवता और आत्मा। पुव्वहिढे कप्पइ, बितियं आगाढ संविग्गो॥ ३२१२.एए चेव य दोसा, सविसेसुच्चारमायरंतस्स। रात्री में विहारभूमी-स्वाध्यायभूमी में एकाकी जाने पर वो सबितिज्जगणिक्खमणे, परिहरिया ते भवे दोसा॥ ही दोष होते हैं तथा षट्कायविराधना का दोष अधिक होता रात्री में मुनि यदि एकाकी उच्चारभूमी में जाता है तो ये है। इसमें अपवादपद यह है कि पूर्वदृष्ट अर्थात् दिन में पूर्वोक्त दोष सविशेष होते हैं। यदि मुनि रात्री में एक मुनि को प्रत्युपेक्षित स्वाध्यायभूमी में जाना कल्पता है। इसमें भी साथ ले प्रतिश्रय से निष्क्रमण करता है तो ये सारे दोष आगाढ़ कारण होने पर संविग्न मुनि ही जा सकता है। परिहृत हो जाते हैं। ३२१९.ते तिण्णि दोण्णी अह विक्कतो उ, ३२१३.जति दोणि तो णिवेदित्तु णेति तेणभए ठाति दारेको। नवं च सुत्तं सपगासमस्स। सावयभयम्मि एक्को, णिसिरति तं रक्खती बितिओ। सज्झातियं णत्थि रहं च सुत्तं, यदि दो मुनि व्युत्सर्ग के लिए रात्री में बाहर जाते हैं तो वे ण यावि पेहाकुसलो स साहू॥ जागृत मुनि को बताकर जाते हैं। यदि स्तेन का भय हो तो वे मुनि तीन, दो या एक भी जा सकते हैं। किसी मुनि के एक द्वार पर बैठा रहता है। यदि श्वापद का भय हो तो एक सूत्र नया सीखा हुआ है। वह अर्थ-सहित उसका परावर्तन उत्सर्ग करने के लिए जाता है और दूसरा मुनि उसकी रक्षा करना चाहता है। उस समय वसति में स्वाध्यायिक नहीं है। में तत्पर रहता है। अथवा रहस्यसूत्र (निशीथ आदि) का परावर्तन करना है। वह ३२१४.सभयाऽसति मत्तस्स उ, एक्को उवओग डंडओ हत्थे। मुनि अनुप्रेक्षा में कुशल नहीं है-इन आगाढ़ कारणों से जाया वति-कुडतेण कडी, कुणति य दारे वि उवयोगं॥ जा सकता है। यदि भय हो और दूसरा मुनि प्राप्त नहीं है तो मात्रक में ३२२०.आसन्नगेहे दियदिट्ठभोम्मे, उत्सर्ग करे। मात्रक न होने पर उपयोगपूर्वक दंड को हाथ में घेत्तूण कालं तहि जाइ दोस। लेकर वृति या भींत के अन्त में अर्थात् पार्श्व में कटी करके वस्सिंदिओ दोसविवज्जितो य, उत्सर्ग करे तथा द्वार से स्तेन आदि का प्रवेश न हो, इसका णिद्दा-विकारा-ऽऽलसवज्जितप्पा॥ उपयोग रखे। काल को ग्रहण कर प्रादोषिक स्वाध्याय करने के लिए ३२१५.बितियपदे उ गिलाणस्स कारणा अहव होज्ज एगागी। निकट के घर में, दिन में प्रत्युपेक्षित भौम में जाता है। वह पुव्व ट्ठिय निहोसे, जतणाए णिवेदिउच्चारे॥ मुनि वश्येन्द्रिय, दोष अर्थात् क्रोध आदि से विवर्जित, निद्रा, अपवादपद में कारण से अकेला भी जा सकता है अथवा विकार, आलस्य से वर्जित हो। मुनि किसी स्थिति में अकेला हो जाए तो अकेला जा सकता ३२२१.तब्भावियं तं तु कुलं अदूरे, है। अथवा पहले निर्दोष अर्थात् निर्भय मानकर रहे और बाद किच्चाण झायं णिसिमेव एति। में समय हो गया हो तो यतनापूर्वक निवेदन कर उच्चारभूमी वाघाततो वा अहवा वि दूरे, या प्रस्रवणभूमी में जाए। सोऊण तत्थेव उवेइ पादो॥ ३२१६.एगो गिलाणपासे, बितिओ आपुच्छिऊण तं नीति। जिस घर में मुनि स्वाध्याय के लिए जाए वह कुल चिरगते गिलाणमितरो, जग्गंतं पुच्छिउँ णीति॥ साधुओं से भावित हो, दूर न हो। वहां स्वाध्याय संपन्न कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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