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पहला उद्देशक
- ३२५
एगागिगमण-पदं
नो कप्पइ निग्गंथस्स एगाणियस्स राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमिं वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा। कप्पइ से अप्पबिइयस्स वा अप्पतइयस्स वा राओ वा वियाले वा बहिया वियारभूमि वा विहारभूमिं वा निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा॥
(सूत्र ४५)
३२०३.पविटुकामा व विहं महंत,
विणिग्गया वा वि ततोऽधवोमे। अप्पायणट्ठाय सरीरगाणं,
अत्ता वयंती खलु संखडीओ॥ लंबे मार्ग में प्रवेश करने के इच्छुक, अथवा उसके लिए प्रस्थित अथवा दुर्भिक्ष हो जाने पर, शरीर को परिपुष्ट करने के लिए अथवा जो आप्त हैं, गीतार्थ हैं वे संखडी में जाते हैं। ३२०४.वत्थं व पत्तं व तहिं सुलभं,
__णाणादिसिं पिंडियवाणिएसु। पवत्तिसं तत्थ कुलादिकज्जे,
लेवं व घेच्छामो अतो वयंति॥ उस क्षेत्र में अनेक देशों से, नाना दिशाओं से समागत व्यापारी एकत्रित होते हैं। वहां वस्त्र और पात्रों की प्राप्ति सुलभ होती है। अथवा उस क्षेत्र में जाकर हम कुल, गण, संघ के कार्य संपन्न करेंगे। वहां लेप की प्राप्ति हो सकती है। इस प्रकार के प्रयोजनों से संखडी में जाते हैं। ३२०५.सेहं विदित्ता अतितिव्वभावं,
गीया गुरुं विण्णवयंति तत्थ। जे तत्थ दोसा अभविंसु पुव्विं,
दीवेत्तु ते तस्स हिता वयंति॥ शैक्ष का संखडी के गांव में जाने का अतितीव्रभाव हो जाता है तब गीतार्थ मुनि गुरु को विज्ञापित करते हैं। तब आचार्य शैक्ष को वृषभ मुनियों के साथ जाने के लिए कहते हैं। संखडी में जाते हुए वृषभ मार्ग में होने वाले तथा संखडी में होने वाले सारे दोषों की जानकारी शैक्ष को कराते हैं, जिससे उसका हित हो सके। शैक्ष को लेकर वे संखडी में जाते हैं। ३२०६.पुव्वोदितं दोसगणं च तं तू,
वज्जेंति सेज्जाइजुतं जताए। संपुण्णमेवं तु भवे गणित्तं,
जं कंखियाणं पविणेति कंखं॥ प्रागुक्त शय्या आदि के दोषों का यतनापूर्वक वर्जन करते हैं। शिष्य ने प्रश्न किया कि आचार्य शैक्ष को संखडी गमन की आज्ञा क्यों देते हैं ? उत्तर में कहा गया कि गणी के गणित्व की अर्थात् आचार्य के आचार्यत्व की संपूर्णता इसी में है कि वे शिष्यों की कांक्षा'-अभिलाषा का विनयन करें। १.कखियस्स कंखं पविणित्ता भवइ त्ति-दशाश्रुतस्कंध, चौथी दशा।
३२०७.आहारा नीहारो, अवस्समेसो तु सुत्तसंबंधो।
तं पुण ण प्पडिसिद्धं, वारे एगस्स निक्खमणं । पूर्वसूत्र में आहार विषयक चर्चा है। आहार के पश्चात् नीहार अवश्यंभावी होता है। यह पूर्वसूत्र से संबंध है। नीहार प्रतिषिद्ध नहीं है। एकाकी व्यक्ति का निष्क्रमण वर्जित है। ३२०८.रत्तिं वियारभूमी, णिग्गंथेगाणियस्स पडिकुट्ठा।
लहुगो य होति मासो, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ रात्री में अकेले निग्रंथ को विचारभूमी में जाना प्रतिकुष्ट है। विचारभूमी के दो प्रकार हैं-कायिकीभूमी और उच्चारभूमी। कायिकीभूमी में रात्री में एकाकी जाने पर लघुमास का प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। ३२०९.तेणाऽऽरक्खिय-सावय-पडिणीए थी-णपुंस-तेरिच्छे।
ओहाणपेहि वेहाणसे य वाले य मुच्छा य॥ एकाकी जाने पर ये सात द्वार हैं-स्तेन, आरक्षिक, श्वापद, प्रत्यनीक, स्त्री, नपुंसक, तिर्यंच। वह अकेला मुनि परितापित होता हुआ वहां से पलायन कर सकता है, फांसी लगा सकता है, व्याल-सर्प से डसे जाने पर तथा मूर्छा से गिर कर परितापना पा सकता है। (निम्न गाथा इसीसे संबंधित है।) ३२१०.थी पंडे तिरिगीसु व, खलितो वेहाणसं व ओधावे।
सेसोवधी-सरीरे, गहणादी मारणं जोए॥ स्त्री तथा नपुंसक उसको एकाकी देखकर बलात् पकड़ सकते हैं। पशु उसका उपघात कर सकते हैं अथवा वह मुनि किसी तिर्यंची के साथ मैथुन की प्रतिसेवना कर सकता है। इससे उसके मन में अपराध भावना उत्पन्न होने पर वह अवधावन कर लेता है या फांसी लगा कर मर जाता है। शेष उपरोक्त जो द्वार हैं, उनसे यह हानि होती है। स्तेन उसकी
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