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________________ ३२८ बृहत्कल्पभाष्यम् ही जब मेरे से कुछ अपराध हो तो मुझे भी उसी प्रकार वर्जन करना क्योंकि जीव प्रमादी होता है, फिर चाहे वह स्त्री का संबंधी भी क्यों न हो? ३२३२.पायं सकज्जग्गहणालसेयं, बुद्धी परत्थेसु उ जागरूका। तमाउरो पस्सति णेह कत्ता, दोसं उदासीणजणो जगं तु॥ क्योंकि प्रायः बुद्धि स्वयं के हित-अहित कार्य के परिच्छेद करने में अलस होती है और पर-प्रयोजन में जागरूक होती है। इस जीवलोक में कार्य करने में आतुर कर्ता दोष को नहीं देखता, तटस्थ व्यक्ति उस दोष को देख लेता है। (आर्या कहती है। इसलिए हे भद्र शय्यातर! अहित में प्रवृत्त होते समय मुझको तुम निवारित करना। ३२३३.तेणिच्छिए तस्स जहिं अगम्मा, वसंति णारीतो तहिं वसेज्जा। ता बेति रत्तिं सह तुब्भ णीहं, अणिच्छमाणीसु बिभेमि बेति॥ यदि आर्यिका का कथन शय्यातर स्वीकार करता है तो वह अकेली आर्या उस शय्यातर की जो अगम्य अर्थात् माता, भगिनी आदि स्त्रियां रहती हैं वहां वह रहे। वे स्त्रियां उस आर्या को कहती हैं-जब तुमको कायिकी आदि के लिए बाहर जाना हो तो हम साथ चलेंगी। ऐसा कहने पर भी यदि वे रात्री में बाहर जाना न चाहें तो आर्या उनसे कहे-मैं अकेली बाहर जाने से डरती हूं। ३२३४.मत्तासईए अपवत्तणे वा, सागारिए वा निसि णिक्खमंती। तासिं णिवेदेतु ससह-दंडा, ___ अतीति वा णीति व साधुधम्मा॥ यदि कोई स्त्री साथ देना न चाहे तो मात्रक में कायिकी का उत्सर्ग करे। यदि मात्रक में कायिकी का प्रवर्तन-उत्सर्जन न होता हो अथवा स्थान सागारिकबहुल होने के कारण वह अकेली आर्या रात्री में बाहर जाती हुई, शय्यातरी को निवेदन करे तथा दंड हाथ में लेकर, खांसी जैसा शब्द करती हुई बाहर जाए और कार्य संपन्न कर प्रवेश करे। यह उसकी साधुसमाचारी है। ३२३५.एगाहि अणेगाहि व, दिया व रातो व गंतु पडिसिद्धं । चउगुरु आयरियादी, दोसा ते चेव जे भणिया॥ एकाकिनी अथवा अनेक आर्यिकाओं के लिए दिन या रात्री में विहारभूमी स्वाध्यायभूमी में जाना प्रतिषिद्ध है। यदि यह तथ्य आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। प्रवर्तिनी भिक्षुणियों को न कहे तो चतुर्गुरु और भिक्षुणियां इसे स्वीकार न करें तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। जो दोष पूर्व में कहे गए हैं, वे ही दोष यहां भी होते हैं। ३२३६.गुत्ते गुत्तदुवारे, दुज्जणवज्जे णिवेसणस्संतो। संबंधि णिए सण्णी, बितियं आगाढ संविग्गे॥ अपवादपद में आर्यिकाएं गुप्त, गुप्तद्वारवाले तथा दुर्जनजनरहित गृह में स्वाध्याय के लिए जा सकती हैं, यदि वह गृह उस पाटक के भीतर हो। यदि वैसा गृह प्राप्त न हो तो आर्यिकाओं के संबंधी के या मित्र के या श्रावक के घर में जाया जा सकता है। यह अपवाद पद आगाढ़योग में प्रवृत्त संविग्न आर्यिका के लिए है। ३२३७.पडिवत्तिकुसल अज्जा, सज्झायज्झाणकारणुज्जुत्ता। मोत्तूण अब्भरहितं, अज्जाण ण कप्पती गंतुं। आगादयोग में प्रवृत्त साध्वी के साथ प्रतिपत्तिकुशल अर्थात् उत्तर देने में निपुण साध्वी को सहायक के रूप में भेजनी चाहिए। आगाढ़योग प्रतिपन्न साध्वी स्वाध्याय को एकाग्रता से करने में उद्युक्त रहे। जहां आर्यिकाओं का जाना-रहना गौरवार्ह माना जाता है, उस गृह को छोड़कर अन्यत्र स्वाध्याय के लिए जाना नहीं कल्पता। ३२३८.सज्झाइयं नत्थि उवस्सएऽम्हं, आगाढजोगं च इमा पवण्णा। तरेण सोहद्दमिदं च तुब्भं, संभावणिज्जातो ण अण्णहा ते॥ (यदि गृहस्थ पूछे कि आप यहां क्यों आई हैं? तब प्रतिपत्तिकुशल साध्वी कहे-) हे श्रावक! हमारे उपाश्रय में आज स्वाध्यायिक नहीं है। यह साध्वी आगाढ़योग में प्रवृत्त है। शय्यातर के साथ तुम्हारा यह सौहार्द है, यह सोचकर हम यहां आई हैं। अतः तुम हमको अन्यथा न मानना, संभावना मत करना। ३२३९.खुद्दो जणो णत्थि ण यावि दूरे, पच्छण्णभूमी य इहं पकामा। तुब्भेहि लोएण य चित्तमेतं, सज्झाय-सीलेसु जहोज्जमो णे॥ यहां कोई क्षुद्रजन भी नहीं है। यह स्थान हमारे उपाश्रय से दूर भी नहीं है। यहां विस्तृत प्रच्छन्नभूमी है। आप लोगों का चित्त प्रतीत है, इसलिए स्वाध्यायशीलवाली हम यहां उद्यम कर सकेंगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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