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पहला उद्देशक
आरियखेत्त-पदं
कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा पुरत्थिमेणं जाव अंग- मगहाओ एत्तए, दक्खिणं जाव कोसंबीओ कोसंबीओ एत्तए, पच्चत्थिमेणं जाव धूणाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयाओ एत्तए । एतावताव कप्पइ । एतावताव आरिए खेते । णो से कप्पर एत्तो बाहिं । तेणं परं जत्थ नाण- दंसण- चरित्ताइं उस्सप्पति ॥ -त्ति बेमि ॥ (सूत्र ५०)
३२४०. इति काले पडिसेहो, परूवितो अह हदाणि खेत्तम्मि | चउदिसि समणुण्णायं, मोत्तूण परेण पडिसेहो ॥ पूर्वसूत्र में काल विषयक प्रतिषेध प्ररूपित हुआ है। प्रस्तुत सूत्र में क्षेत्र विषयक प्ररूपणा है। चारों दिशाओं में जितना क्षेत्र समनुज्ञात है, उसको छोड़कर शेष क्षेत्रों में विहार करना प्रतिषिद्ध है।
३२४१. ट्ठा विपडिसेहो, दव्वाही दव्वे आदिसुत्तं तु । घडिमत्त चिलिमिणीए यत्यादी चेव चत्तारि ॥ ३२४२. वगडा रच्छा दगतीरगं च विह चरमगं च खित्तम्मि ।
सारिय पाहुड भावे, सेसा काले य भावे य॥ पूर्वसूत्रों में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावविषयक प्रतिषेध हुआ है। द्रव्य प्रतिषेध विषयक आदि सूत्र (सू. १-५), घटीमात्रसूत्र (१६,१७), चिलिमिलिका सूत्र (१८), वस्त्र आदि के प्रतिषेधक चार सूत्र (३८-४१) – ये सब द्रव्य विषयक प्रतिषेध करने वाले सूत्र हैं। बगडा सूत्र (१०,११), रथ्या आदि (४६), और यह प्रस्तुत चरम सूत्र (५०) - ये सारे क्षेत्र प्रतिषेध विषयक सूत्र हैं सागारिक सूत्र (२२-२४) प्राभृत सूत्र (३४ ) ये भाव प्रतिषेध करने वाले सूत्र हैं। शेष अर्थात् मासकल्पप्रकृत आदि सूत्र (६-८) ये सभी काल और भाव दोनों का प्रतिषेध करते हैं। ३२४३. अहवण सुत्ते सुत्ते, दव्वादीणं
चउण्हमोआरो
सोय अधीणो वत्तरि, सोतरि य अतो अणियमोऽयं ॥ अथवा प्रत्येक सूत्र में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव- चारों का समवतार होता है। यह समवतार वक्ता और श्रोता के अधीन होता है। अतः यह नियम नहीं है कि प्रतिसूत्र में द्रव्य आदि चतुष्क का समवतार निरूपित हो ।
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३२४४. जो एतं न वि जाणह, पढमुद्देसस्स अंतिमं सुत्तं । अहवण सव्वऽज्झयणं, तत्थ उ नायं इमं होइ ॥ जो आचार्य प्रस्तुत प्रथम उद्देशक का अन्तिम सूत्र नहीं जानता अथवा सारा कल्प अध्ययन नहीं जानता तो उसके लिए यह ज्ञात-उदाहरण होता है।
३२४५. उज्जालितो पदीवो, चाउस्सालस्स मज्झयारम्मि ।
पमुहे वा तं सव्वं, चाउस्सालं पगासेति ॥ चतुःशाला वाले घर के मध्यभाग में अथवा उसके प्रवेश और निर्गमन के स्थान पर दीपक जलाकर रख दिया जाता है तो वह दीपक संपूर्ण चतुःशाला को प्रकाशित कर देता है। (इसी प्रकार सारे अध्ययनों के मध्यवर्ती यह अंतिम सूत्र, जो प्रथम उद्देशक का अन्त्यसूत्र है, उसको जो नहीं जानता वह अन्य सामाचारी का ज्ञाता नहीं हो सकता। उसे गण का साधु भी नहीं कहा जा सकता ।)
३२४६. जो गणहरो न याणति, जाणतो वा न देसती मम्गं । सो सप्पसीसगं पिव, विणस्सती विज्जपुत्तो वा ॥ ३२४७. सी. उन्ह- वासे य तमंधकारे,
णिच्चं पि गच्छामि जतो मि णेसी । गंतव्वए सीसग ! कंचि कालं,
अहं पि ता होज्न पुरस्सरा ते ॥
बज्नेमि मोरे णउलादिए य माता विसूराहि अजाण एवं ॥
पुरस्सरं ताव भवाहि अज्ज ।
३२४८. ससक्करे कंटइले व मग्गे,
बिले य जाणामि अदुट्ठ दुट्टे,
३२४९. तं जाणगं होहि अजाणिगा है,
एसा अहं णंगलिपासणं,
लग्गा दुअं सीसग ! वच्च वच्च ॥ ३२५०. अकोविए ! होहि पुरस्सरा मे,
अलं विरोहेण अपंडितेहिं ।
वंसस्स छेदं अमुणे इमस्स, दडुं जतिं गच्छसि तो गता सि ॥ जो गणधर यथोक्त सामाचारी को नहीं जानता अथवा जानता हुआ भी उस मार्ग का उपदेश नहीं देता वह सर्पशीर्ष तथा वैद्यपुत्र की भांति विनाश को प्राप्त हो जाता है। एक सर्प सुखपूर्वक विहरण करता था। एक बार उसकी पूंछ ने कहा-'तुम सदा आगे चलते हो मैं तुम्हारे पीछे-पीछे शीत, ताप, वर्षा, अंधकार में, जहां तुम ले जाते हो, वहां जाती हूं। हे शीर्षक! कुछ समय तक मैं तुम्हारे आगे होकर चलना चाहती हूं।' शीर्षक बोला-'हे पूंछ आगे चलता हुआ मैं
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