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'कौन' यह सुनकर शय्यातर उठकर स्तेन या मैथुनार्थी को पकड़कर पीटेगा अथवा वह स्तेन या मैथुनार्थी उस शय्यातर को पकड़कर पीटेंगे। यह देखकर शय्यातर के ज्ञातिजन स्तेन के द्रव्य अथवा अन्य द्रव्य का व्यवच्छेद कर देंगे। अथवा वे स्तेन साध्वियों पर छोभ-झूठा आरोप लगायेंगे और प्रद्वेषवश शय्यातर का गृह या उस उपाश्रय में आग लगा देंगे। वे द्वेषवश और कुछ भी कर सकते हैं, अतः 'कौन है' ऐसा नहीं पूछना चाहिए।
२३४८. संकियमसंकियं वा, उभयट्ठि नच्च बेंति अहिलितं ।
छुति हडि ति अणाहा!, नत्थि ते माया पिया वा वि ॥ चोरी के लिए अथवा मैथुन के लिए अथवा दोनों के लिए प्रतिश्रय में आए हुए को, चाहे शंकित हो या अशंकित, छुपने की कोशिश करते हुए को कहे- 'छुछु, हडि, अनाथ! क्या तेरे माता पिता नहीं है कि तू इस समय इस प्रकार गलियों में घूम रहा है-'
२३४९. जंतुवस्सयं थे, छिन्नाल जरग्गगा सगोरहगा । नत्थि इह तु चारी, नस्ससु किं वाहिसि अहन्ना ! ॥ तुम्हारे जैसे छिन्नाल बूढ़े बैल, अथवा तरुण बैल हमारे उपाश्रय को तोड़ रहे हैं। तुम्हारे योग्य यहां चारि नहीं है। यहां से भाग जाओ । हे अधन्य ! निर्भागी ! तुम यहां क्या खाओगे।
२३५०, अाण निम्नयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए । दव्वस्स व असईए, ताओ व अपच्छिमा पिंडी ॥ अध्वनिर्गत साध्वियां तीन बार उपयुक्त वसति की मार्गणा करे। न मिलने पर खुले द्वार वाले उपाश्रय में रहे। द्रव्य-कपाट के न होने पर, अन्य वस्तुओं से द्वार बंद कर दे। अंतिम यतना यह है कि वे सभी पिंडीभूत होकर परस्पर कर बांध कर बैठ जाएं।
२३५१. अन्नत्तो व कवाडं, कंटिय दंड चिलिमिलि बहिं किढिया । पिंडीभवंति सभए, काऊणऽन्नोन्नकरबंधं ॥ उपाश्रय में कपाट के अभाव में अन्यत्र से भी कपाट लाकर द्वार बंद कर दे। वह न मिलने पर बांस का कट, कंटकशाखा से बंद करे अथवा दंडे को तिरछा रख चिलिमिली बांध दे बाहर के द्वार पर स्थविरा साध्वी बैठ जाए। उपसर्ग के समय सभी परस्पर करबंध कर एकत्रित होकर बैठ जाएं।
२३५२, तो हवंति तरुणी सह दंडेहि ते पतालिति ।
अह तत्थ होंति वसभा, वारिति निही व ते होउं ॥ मध्य में तरुण साध्वियां हाथ में दंड लेकर बैठ जाएं और जोर-जोर से शब्द करें। कोई उपद्रवकारी आए तो उसे दंडों
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बृहत्कल्पभाष्यम
से प्रताडित करे। यदि पास में कोई वृषभ मुनि हों, और उन्हें ज्ञात हो जाए तो वे गृहस्थ वेश में आकर उन आगंतुक चोरों आदि को निवारित करें।
कप्पइ निग्गंथाणं निम्गंथाणं अवगुयदुवारिए
उवस्सए वत्थए ॥
(सूत्र १५)
२३५३. निग्गंथदारपिहणे, लहुओ मासो उ दोस आणादी । अइगमणे निम्गमणे, संघट्टणमाइ पलिमंथो ॥ साधु यदि उपाश्रय के द्वार को ढंकते हैं तो उन्हें लघुमास का प्रायश्चित आता है और आज्ञाभंग आदि दोष लगता है। वहां इस प्रकार की विराधना होती है-बाहर जाते या आते समय संघट्टन, परितापन आदि हो सकता है तथा सूत्रार्थ का व्याघात (कपाट खोलने बंद करने में जो समय लगता है ) - परिमंथ होता है।
२३५४. घरकोहलिया सप्पे, संचाराई य होंति हिब्रुवरिं ।
दलित वंगुरिते, अभिघातो निंत इंताणं ॥ द्वार के नीचे या ऊपर छुछंदरी, सर्प, संचारिम-कीटिका, कुन्थु, कसारी आदि जीव होते हैं। इसलिए आते-जाते द्वार को ढंकने या खोलने में उन जीवों का अभिघात विनाश होता है।
२३५५, सिय कारणे पिहिज्जा,
जिण जाणग गच्छ इच्छिमो नाउं । आगाढकारणम्मि उ
कप्पइ जयणाइ उ ठएउं ॥ कारण में कदाचित् द्वार को बंद किया जा सकता है। जिनकल्पी मुनि कारण को जानते हैं, परंतु वे कपाट बंद नहीं करते शिष्य ने पूछा- गच्छवासी हम मुनि इसकी विधि जानना चाहते हैं। आचार्य ने कहा- आगाढ़ कारण में यतनापूर्वक द्वार बंद करना कल्पता है।
२३५६. जाणंति जिणा कज्जं, पत्ते वि उ तं न ते निसेवंति ।
थेरा वि उ जाणंती, अणागयं केइ पत्तं तु ॥ जिन अर्थात् जिनकल्पिक मुनि द्वार बंद करने के कारणों के ज्ञाता होते हैं, फिर भी कारण प्राप्त होने पर भी वे द्वार बंद नहीं करते, क्योंकि उनकी यह चर्या निरपवाद होती है। स्थविरकल्पी कई मुनि अनागत कारणों को भी जानते हैं और कई कारण उपस्थित होने पर ही जान पाते हैं। २३५७. अहवा निणप्पमाणा, कारणसेवी अदोसवं होइ। थेरा वि जाणग च्चिय, कारण जयणाए सेवंता ।।
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