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________________ पहला उद्देशक = २३९ अथवा कारणवंश द्वारपिधानसेवी अदोषवान् होता है। क्योंकि इसमें तीर्थंकर ही प्रमाण है। जिनभगवान् का यह कथन है कि स्थविरकल्पिक भी ज्ञायक ही होते हैं। कारणवश यतनापूर्वक द्वारपिधान के वे ज्ञाता होते हैं। २३५८.पडिणीय तेण सावय, उब्भामग गोण साणऽणप्पज्झे। सीयं च दुरधियासं, दीहा पक्खी व सागरिए॥ उद्घाटित द्वार में प्रत्यनीक, स्तेन, श्वापद, उद्भ्रामक, बैल, कुत्ता आदि प्रवेश कर सकते हैं। अनात्मवश-क्षिप्तचित्त आदि व्यक्ति बाहर निकल जाते हैं। शीत को सहन करना कष्टप्रद हो जाता है। दीर्घ-सर्प, पक्षी तथा कोई सागारिक प्रवेश कर सकता है। २३५९.एक्केक्कम्मि उ ठाणे, चउरो मासा हवंति उग्घाया। आणाइणो य दोसा, विराहणा संजमा-ऽऽयाए। पूर्वोक्त एक-एक स्थान में चार उद्घात-लघु का प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना होती है। २३६०.अहि-सावय-पच्चत्थिसु, गुरुगा सेसेसु होति चउलहुगा। तेणे गुरुगा लहुगा, ___ आणाइ विराहणा दुविहा॥ सर्प, श्वापद, प्रत्यनीक के प्रवेश कर देने पर चतुर्गुरु और शेष के प्रवेश करने पर चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है। स्तेन का प्रवेश करने पर-शरीरस्तेन का चतुर्गुरु और उपधि-स्तेन के चतुर्लघु का प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष और दोनों प्रकार की विराधना-आत्मविराधना तथा संयमविराधना होती है। २३६१.उवओगं हेह्रवरिं, काऊण ठविंतऽवंगुरते अ। पेहा जत्थ न सुज्झइ, पमज्जिउं तत्थ सारिंति॥ कपाट के ऊपर, नीचे, उसको खोलते-ढंकते समय, उपयोगपूर्वक निरीक्षण करना चाहिए। जहां प्रेक्षा शुद्ध नहीं होती है वहां रजोहरण से प्रमार्जन कर कपाट खोलना-बंद करना चाहिए। २३६२.ओहाडियचिलिमिलिए, दुक्खं बहुसो अइंति निति विय। आरंभो घडिमत्ते, निसिं व वुत्तं इमं तु दिवा।। चिलिमिली से ढंके हुए द्वार से रात्री में मात्रक लेकर बाहर जाने-आने में साध्वियों को बहुत कष्ट होता है। इसलिए घटीमात्रकसूत्र का न्यास किया जाता है। अथवा रात में कायिकी मात्रक में की जाती है, यह सूत्र दिन में मात्रकविधि का दिग्दर्शन कराता है। २३६३.घडिमत्तंतो लित्तं, निग्गंथीणं अगिण्हमाणीणं। चउगुरुगाऽऽयरियादि, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ जो साध्वी लेप से लिप्त घटीमात्रक (घटी के संस्थान वाल मिट्टी का भाजन विशेष) को ग्रहण नहीं करती, उसे चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त आता है। यदि आचार्य आदि इस सूत्र का कथन नहीं करते हैं तो उन्हें प्रायश्चित्त आता है तथा आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २३६४.अपरिस्साई मसिणो, पगासवदणो स मिम्मओ लहुओ। सुइ-सिय-दहरपिहणो, चिट्ठइ अरहम्मि वसहीए॥ वह घटीमात्रक अपरिस्रावी, चिकना, चौड़े मुंह वाला, मृन्मय और हल्का होता है। वह पवित्र, श्वेत और वस्त्रमय पिधान वाला होता है। ऐसा मात्रक प्रकाशप्रदेशवाली वसति में रहता है। नो कप्पइ निग्गंथाणं अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा॥ (सूत्र १७) घडीमत्तय-पदं कप्पइ निग्गंथीणं 'अंतोलित्तयं घडिमत्तयं धारित्तए वा परिहरित्तए वा। (सूत्र १६) २३६५.साहू गिण्हइ लहुगा, आणाइ विराहणा अणुवहि त्ति। बिइयं गिलाणकारण, साहूण वि सोअवादीसु।। साधु घटीमात्रक को ग्रहण करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त, आज्ञाभंग आदि दोष और दोनों प्रकार की विराधना (आत्मविराधना, संयमविराधना) होती है। यह साधु की उपधि नहीं होती। २३६६.दुविहपमाणतिरेगे, सुत्तादेसेण तेण लहुगा उ। मज्झिमगं पुण उवहिं, पडुच्च मासो भवे लहुओ॥ प्रमाण दो प्रकार का है-गणना और प्रमाण। अतिरिक्त १. उपकरण की परिभाषा-जं जुज्जइ उवयारे, उवगरणं तं सि होइ उवगरणं। अइरेगं अहिगरणं। (ओघ. नि. ७३१) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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