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मध्यम उपधि में सूत्रादेश से चतुर्लघु प्रायश्चित्त है। क्योंकि मध्यमउपधि है घटीमात्रक। इसलिए यहां लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है।
२३६७. धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होह परिभोगो दुविशेण वि सो कप्पड़, परिहारेण तु परिभोतुं ॥ परिहरणा के दो प्रकार हैं- धारणा और परिहरणा धारणा का अर्थ है-अभोग, अपनी निश्रा में उसे स्थापित किए रखना, उपभोग नहीं करना और परिहरणा का अर्थ है उसका उपभोग करना। इस प्रकार साध्वियों को दोनों परिहार से घटीमात्रक रखना कल्पता है।
२३६८. उड्डाहो वोसिरणे, गिलाणआरोवणा य धरणम्मि । बियप असईए, भिन्नोऽवह अद्धलित्तो वा ॥ साध्वियां यदि घटीमात्रक नहीं रखती हैं तो उन्हें कायिकी का व्युत्सर्ग बाहर करना पड़ता है। उससे प्रवचन का उड्डाह होता है। वेग को धारण करने से ग्लान की आरोपणा होती है। अपवाद में यदि घटीमात्रक न हो अथवा वह टूट गया हो, अर्द्धलिस हो, काम में लेने योग्य न हो तो बाहर यतनापूर्वक कायिकी का व्युत्सर्जन करे। २३६९. लाउय असह सिणेहो, ठाइ तहिं पुव्वभाविय कडाहो । सेहे व सोयवायी, धरंति देसिं व ते पप्प ॥ अलाबुपात्र का अभाव होने पर 'स्निग्ध' अर्थात् पूर्वमावित कटाहक या घटीमात्रक ग्रहण करें, जिसमें घृत भी ठहर सके, परिस्रावित न हो कोई शैक्ष शौचबादी हो वह शौचार्थ घटीमात्रक को ले जाता है। अथवा देश विशेष ( गोल्ल देश) में घटीमात्रक को धारण करते हैं। २३७०. गहणं तु अहागडए, तस्सऽसई होइ अप्यपरिकम्मे ।
तस्सऽसइ कुंडिगादी, घेत्तुं नाला विउज्जेति ॥ सबसे पहले यथाकृत घटीमात्रक ले। उसके अभाव में अल्पकर्मिक, उसके अभाव में कुंडिका - कमंडलु आदि ग्रहण कर उसकी नालिका को निकाल दे, उससे वियुक्त कर दे।
चिलिमिलिया-पदं
कप्पs निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चेलचिलिमिलियं धारित्तए वा परिहरित्तए
वा ॥
१. रुन्दा- विस्तीर्णा । (वृ. पृ. ६७३)
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(सूत्र १८)
बृहत्कल्पभाष्यम्
२३७१. सागारिपच्चया, जह घडिमत्तो तहा चिलिमिली वि रत्तिं व हेऽणंतर, इमा उ जयणा उभयकाले ॥ सागारिक गृहस्थ के विश्वास के लिए जैसे घटीमात्रक का ग्रहण है वैसे ही चिलिमिलिका का भी ग्रहण जानना चाहिए। पहले सूत्र में रात्री में चिलिमिलिका की यतना के विषय में कहा गया था, प्रस्तुत सूत्र में उभयकाल -रात और दिन में यतना का निर्देश है।
२३७२. धारणया उ अभोगो, परिहरणा तस्स होइ परिभोगी।
चेलं तु पहाणयरं, तो गहणं तस्स नऽन्नासिं ॥ धारणा का अर्थ है-अभोग अर्थात् उपभोग न करना और परिहरणा का अर्थ है उपभोग करना वस्त्र कई दृष्टियों से प्रधानतर द्रव्य है । इसलिए सूत्र में उसीका ग्रहण किया गया है, अन्य द्रव्यों का नहीं।
२३७३. भेदो य परूवणया, दुविहपमाणं च चिलिमिलीणं तु ।
उपभोगो उ दुपक्खे, अगहणऽधरणे व लहु दोसा ॥ चिलिमिलिका के ये द्वार हैं-भेद, प्ररूपणा, दो प्रकार के प्रमाण, दोनों पक्ष ( साधु-साध्वी) में उसका उपभोग, अग्रहण, अधारण से लघु प्रायश्चित्त और आज्ञाभंग आदि दोष (विस्तार आगे की गाथाओं में ।)
२३७४. सुत्तमई रज्जुमई, बागमई दंड- कडगमयई य
पंचविह चिलिमिली पुण, उवग्गहकरी भवे गच्छे ॥ गच्छ में पांच प्रकार की चिलिमिली उपग्रहकारी होती है। वे पांच प्रकार हैं-सूत्रमयी रज्जुमयी वल्कगयी, दंडकमयी और कटकमयी ये चिलिमिली के भेद हैं।
उनकी प्ररूपणा इस प्रकार है
(१) सूत से बनी हुई- सूत्रमयी (वस्त्रमयी या कंबलमयी ।) (२) रज्जु से बनी हुई रज्जुमयी (उन आदि से निष्पन्न)। (३) वल्क से बनी हुई - वल्कमयी (शण से निष्पन्न) । (४) दंडक से बनी हुई दंडमयी (बांस, वेत्र आदि की यष्टि से निष्पन्न) |
(५) कट से बनी हुई-कटमयी (बांस आदि से निष्पन्न) । २३७५. हत्थपणगं तु दीहा, तिहत्थ रुंदोन्निया असइ खोमा।
एत प्पमाण गणणेक्कमेक्क गच्छं व जा वेढे ॥ सूत्रमयी चिलिमिलिका पांच हाथ लंबी और तीन हाथ चौड़ी हो उसके अभाव में क्षौमिकी चिलिमिलिका ले। वल्कमयी चिलिमिलिका का भी यही प्रमाण है। गणनाप्रमाण के आधार पर एक-एक साधु के लिए एक-एक चिलिमिलिका अथवा जितनी गच्छ को वेष्टित करती हैं, उतनी ले।
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