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पहला उद्देशक
= २३७ जब उभयसंज्ञा से निवृत्त होकर अन्य साध्वियां वहां २३४२.कुडमुह डगलेसु व काउ मत्तगं इट्टगाइदुरुढाओ। प्रवेश करती हैं, तब प्रवेश करते ही प्रवर्तिनी उनके शिर, लाल सराव पलालं, व छोढ मोयं तु मा सहो। कपोल और वक्षस्थान को छूती है और तुम्हारा नाम क्या घटकंठक अथवा डगलक पर मात्रक को स्थापित कर, है-यह पूछती है। (स्पर्श यह जानने के लिए करती है कि उस पर एक शराव रखे, उसके मध्य में छिद्र कर, उस छिद्र आगंतुक साध्वी है या नहीं?)
में वस्त्र की एक लंबी लीरी अथवा पलाल उसमें डाले २३३८.किं तुज्झ इक्वियाए, घम्मो दारं न होइ इत्तो उ। जिससे कि प्रस्रवण करते समय उसका शब्द न हो। उसके
न य निट्ठरं पि भन्नइ, मा जियगद्दत्तणं हुज्जा॥ दोनों पार्यों में ईंटें रखें और उस पर आरूढ़ होकर साध्वियां विलंब से आने पर प्रवर्तिनी कहती है क्या तुम्हारे प्रस्रवण करें। अकेली का ही यह धर्म है कि विलंब से आना? इधर द्वार २३४३.सोऊण दोन्नि जामे, चरिमे उज्झेत्तु मोयमत्तं तु। नहीं होता (अर्थात् बिलंब से आने पर स्थान नहीं है। यह कालपडिलेह झातो, ओहाडियचिलिमिली तम्मि॥ अन्यव्यपदेश से मधुर वचनों में कहे) वह निर्लज्ज न हो जाए दो प्रहरों तक सोकर, चरम याम में जाग कर मोक का इसलिए उसे निष्ठुर वचनों से न कहे।
विसर्जन कर, काल की प्रतिलेखना करे और यतनापूर्वक २३३९.सव्वासु पविट्ठासुं, पडिहारि पविस्स बंधए दारं।। स्वाध्याय करे और केवल चिलिमिलि से द्वार को ढंका रखे, ___ मज्झे य ठाइ गणिणी, सेसाओ चक्कवालेणं॥ कटद्वय को हटाले।
सभी साध्वियों के प्रवेश कर लेने पर प्रतिहारी प्रवेश का २३४४.संकापदं तह भयं, दुविहा तेणा य मेहुणट्ठी य। द्वार को पूर्ववत् बांध देती है। गणिनी मध्य में आकर बैठ देह-धिइदुब्बलाओ, कालमओ ता न जग्गंति॥ जाती है, अर्थात् बिछौना बिछाकर सो जाती है। और शेष यदि वे साध्वियां काल को ग्रहण कर प्रतिश्रय में आकर साध्वियां चक्रवाल के रूप में प्रवर्तिनी के चारों ओर अपना जागती रहती है तो लोगों को शंका होती है अथवा भय के अपना संस्तारक बिछाकर, एक दूसरे को संघट्टन न करती कारण वे जागती है। दो प्रकार के स्तेन होते हैं। वे साध्वियों हुईं सो जाती हैं।
को अथवा उपधि की चोरी कर लेते हैं। अथवा मैथुनार्थी २३४०.सइकरण कोउहल्ला,
साध्वियों को उपसर्गित करते हैं। शरीर और धृति से दुर्बल फासे कलहो य तेण तं मुत्तुं। होने के कारण वे काल-ग्रहण कर पुनः सो जाती हैं, जागृत किढि तरुणी किढि तरुणी,
नहीं रहतीं। अभिक्ख छिवणा य जयणाए॥ २३४५.कम्मेहिं मोहियाणं, अभिद्दवंताण को त्ति जा भणइ। प्रश्न होता है कि एक दूसरे का संघट्टन क्यों नहीं? एक
संकापदं व होज्जा, सागारिअ तेणए वा वि॥ दूसरे का स्पर्श होने पर भुक्त-अभुक्त भोगों की स्मृति तथा मोह कर्म से मूढ व्यक्ति साध्वियों को शीलच्युत करने के कुतूहल पैदा होता है। परस्पर कलह हो सकता है। इसलिए लिए उपाश्रय में आता है। उस उपद्रुत करने वाले व्यक्ति को उस स्पर्श-संघट्टन को टालने के लिए स्थविरा साध्वी पहले यदि साध्वी कहे-कौन ?। ऐसा कहने पर उसे प्रायश्चित्त बिछौना करे, उसके पास तरुण साध्वी, फिर स्थविरा आता है। स्तेन और सागारिक को यह शंका हो सकती है। साध्वी, उसके पास तरुण साध्वी इसी क्रम से शयनविधि २३४६.अन्नो वि नूणमभिपडइ इत्थ वीसत्थया तदट्ठीणं। करे। तरुण साध्वियों का बार-बार स्पर्श न हो, इस
सागारि सेज्झगा वा, सइत्थिगाओ व संकेज्जा। प्रकार यतनापूर्वक शयन करे। प्रतिहारी द्वारमूल पर बिछौना आगन्तक स्तेन या मैथुनार्थी यह सोचता है-इस साध्वी करे।
ने 'कौन' यह पूछा है, इसका तात्पर्य है कि यहां निश्चित ही २३४१.तणुनिदा पडिहारी, गोविय घेत्तुं च सुवइ तं दारं। कोई अन्य भी आता है, अतः वे विश्वस्त हो जाते हैं,
जग्गंति वारएण व, नाउं आमोस-दुस्सीले॥ भयभीत नहीं होते। सागारिक-शय्यातर अथवा सेज्झगप्रतिहारी की निद्रा स्वल्प होती है। वह मूल को बांधकर पड़ौसी, अकेले अथवा सस्त्रीक, इनके मन में यह शंका उसके डोरे की ग्रंथि को गुप्त रख, डोरे को अपने हाथ में होती है कि इन साध्वियों के कोई उद्भ्रामक व्यक्ति यहां रखकर सोती है, जिससे कि अन्य साध्वियां उस द्वार को आता है। खोल न सके। वह चोर, दुःशील आदि व्यक्तियों से रक्षा के २३४७.तेणियरं व सगारो, गिण्हे मारेज्ज सो व सागरियं। लिए समय-समय पर रात्री में जागती रहती है।
पडिसेह छोभ झामण, काहिंति पदोसतो जं च॥
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