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२३२६.पडिसिद्धविवक्खेसुं, उवस्सएहिं उ संवसंतीणं।
बंभवयगुत्ति पगए, वारिंतऽन्नेसु वि अगुत्तिं॥ प्रतिषिद्ध आपणगृह आदि के प्रतिपक्ष उपाश्रयों में रहनेवाली साध्वियों के ब्रह्मचर्यगुप्ति की बात कही गई है। उन उपाश्रयों में भी अपावृतद्वारतारूप अगुप्ति का निषेध किया गया है। २३२७.दारे अवंगुयम्मी, निग्गंथीणं न कप्पए वासो।
चउगुरु आयरियाई, तत्थ वि आणाइणो दोसा॥ उद्घाटित द्वारवाले उपाश्रय में साध्वियों को रहना नहीं कल्पता। यदि आचार्य प्रवर्तिनी को नहीं कहते हैं तो चतुर्गुरु, प्रवर्तिनी यदि साध्वियों को नहीं कहती हैं तो चतुर्गुरु आर्यिका यदि स्वीकार नहीं करती है तो मासलघु। न कहने और स्वीकार न करने पर आज्ञाभंग आदि दोष होते हैं। २३२८.दारे अवंगुयम्मी, भिक्खुणिमादीण संवसंतीणं।
गुरुगा दोहि विसिट्ठा, चउगुरुगादी व छेदंता॥ उद्घाटित द्वारवाले उपाश्रय में रहने वाली भिक्षुणी आदि साध्वियों के चतुर्गुरु आदि प्रायश्चित्त तप और काल से विशिष्ट प्रायश्चित्त आता है। और वह वृद्धिंगत होते होते छेद पर्यन्त चला जाता है। (देखें टीका) २३२९.तरुणे वेसित्थीओ, विवाहमादीसु होइ सइकरणं।
इच्छमणिच्छे तरुणा, तेणा ताओ व उवहिं वा॥ आपणगृह आदि में ठहरी हुई साध्वियां तरुणों को, वेश्याओं को, विवाह को तथा राजा आदि को देखकर भुक्तभोगों की स्मृति कर सकती हैं। यदि वे तरुणों की इच्छा करती हैं तो संयमविराधना होती है और यदि इच्छा नहीं करती हैं तो तरुण उड्डाह करते हैं। स्तेन उनकी उपधि का अथवा साध्वियों का अपहरण कर लेते हैं। २३३०.अन्ने वि होति दोसा, सावय तेणे य मेहुणट्ठी य।
वइणीसु अगारीसु य, दोच्चं संछोभणादीया॥ अन्य दोष भी वहां उद्भूत होते हैं। अपावृत द्वार वाले उपाश्रय में श्वापद, चोर, मेथुनार्थी लोग प्रवेश कर सकते हैं। कोई व्रतिनी मोहोद्भव के कारण किसी गृहस्थ को चाह रही हो और वह गृहस्थ रात्री में दूती के रूप में किसी स्त्री को वहां खुले उपाश्रय में भेजता है। गृहिणियों के मध्य कोई गृहिणी संछोमण-परिवर्तन कर देती हैं। वह साध्वी का वेश पहन कर साध्वी के शयन पर सो जाती है और वह साध्वी उसके वस्त्र पहन कर जहां जाना हो चली जाती है। ये सारे दोष होते हैं। २३३१.पत्थारो अंतो बहि, अंतो बंधाहिं चिलिमिलिं उवरिं।
पडिहारि दारमूले, मत्तग सुवणं च जयणाए। १. प्रस्तारः-कटः, स च द्विदलकटादिः।
=बृहत्कल्पभाष्यम् यदि अपवादरूप में वहां रहना पड़े तो यह विधि हैउपाश्रय के भीतर और बाहर दो प्रस्तार-बांस की चटाई बांधनी चाहिए। भीतर वाले प्रस्तार के ऊपर एक चिलिमिली बांध कर उसे नियंत्रित करना चाहिए। फिर प्रतिहारी द्वार के पास बैठ जाती है। मात्रक-प्रस्रवण और स्वपन यतनापूर्वक करना चाहिए। २३३२.असई य कवाडस्सा,बिदलकडादी अ दो कडा उभओ।
फरमुट्ठियस्स सरिसो, बाहिरकडयम्मि बंधो उ॥ २३३३.सुत्ताइरज्जुबंधो, दुछिड्ड अभिंतरिल्लकडयम्मि।
हेट्ठा मज्झे उवरिं, तिन्नि व दो वा भवे बंधा। यदि उपाश्रय के कपाट न हों तो द्वार के दोनों ओर द्विदलकट-बांस की दो चटाईयां दोनों ओर बांधनी चाहिए। फिर स्फरक की मुष्टि (?) के सदृश बंध भीतर से बाहर के कट के बंध देना चाहिए। वह बंध सूत्रमय, वल्कलमय, ऊर्णामय या दवरकमय हो सकता है। अभ्यंतरकट में दो छिद्र करने चाहिए। वे नीचे और ऊपर समश्रेणी में हों और उनमें से दबरक को प्रविष्ट कर मजबूती से बांध देना चाहिए। ऐसे तीन या दो बंध बांधने चाहिए। २३३४.काएण उवचिया खलु, पडिहारी संजईण गीयत्था।
परिणय भुत्त कुलीणा, अभीरु वायामियसरीरा।। २३३५.आवासगं करित्ता, पडिहारी दंडहत्थ दारम्मि।
तिन्नि उ अप्पडिचरित्रं, कालं घेत्तूण य पवेए।। प्रतिहारी कैसी हो? आचार्य कहते हैं वह शरीर से उपचित, गीतार्था, परिणत, भुक्तभोगिनी, कुलीन, अभीरु, व्यायामित-शरीरवाली अर्थात् कष्टों को सहन करने में समर्थ साध्वियों के ऐसी प्रतिहारी होनी चाहिए। उसका कार्य है कि वह प्रतिक्रमण कर, हाथ में दंड लेकर मुख्यद्वार पर बैठ जाए। तीन साध्वियां अघोषित रूप से कालग्रहण कर प्रवर्तिनी को निवेदन करे। निवेदन करने के पश्चात् स्वाध्याय की प्रस्थापना की जाती है। तब सभी साध्वियां स्वाध्याय करती हैं। २३३६.ओहाडियदाराओ, पोरिसि काऊण पढमए जामे।
पडिहारि अग्गदारे, गणिणी उ उवस्सयमुहम्मि॥ चिलिमिली से ढंके हुए द्वार में स्थित वे साध्वियां प्रथम प्रहर में सूत्रपौरुषी करती हैं, प्रतिहारी उस समय भी अग्रद्वार पर बैठी रहती है। गणिनी-प्रवर्तिनी उपाश्रय के मूल द्वार पर स्थित होकर स्वाध्याय करती है। २३३७.उभयविसुद्धा इयरी, पविसंतीओ पवत्तिणी छिवइ।
सीसे गंडे वच्छे, पुच्छइ नामं च का सि ति॥
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