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पहला उद्देशक
= २३५ ये साध्वियां तपोवन में रहने वाली इस गर्हित स्थान में स्थित हो वहां नियंत्रित मुनियों का यंत्रितवास नित्य भी हो सकता हैं। क्या यह माने कि तीर्थंकर ने ऐसा धर्म कहा है? इस है, ऐसा कहा है। प्रकार वे शास्ता की गर्दा करते हैं।
२३२३.बोलेण झायकरणं, ठाणं वत्थु व पप्प भइयं तु। साधुओं की भी गर्दी होती है। लोग कहते हैं-इन्होंने
वंदेण इंति निति व, अविणीयनिहोडणा चेव। अपनी साध्वियों को यहां ठहराया है। साधु पक्ष वाले श्रावकों यतना क्या है? साथ में उच्चस्वर से स्वाध्याय करना के समक्ष दुर्जन व्यक्ति उपहास करते हैं। यह देखकर चाहिए। स्थान या वस्तु को प्राप्त कर लेने पर स्वाध्याय की प्रव्रज्याभिमुख साध्वियां भी संयम से निवर्तित हो जाती हैं। भजना है। संज्ञा व्युत्सर्जन करने जाना हो तो समूह में जाए तथा कुलप्रसूत साध्वियां भी घर चली जाती हैं।
और साथ आए। अविनीत अर्थात् दुःशील तरुणों को वहां २३१८.तरुणादीए द8, सइकरणसमुब्भवेहिं दोसेहिं।। प्रवेश न करने दें।
पडिगमणादी व सिया, चरित्तभासुंडणा वा वि॥ २३२४.एएसिं असईए, सुन्ने बहि रक्खियाउ वसहेहिं। तरुणों को देखकर स्मृतिकरण से उत्पन्न अनेक दोष होते तेसऽसती गिहिनीसा, वइमाइसु भोइए नायं॥ हैं। उनके कारण से साध्वियां प्रतिगमन कर देती हैं, अथवा इन आपणगृहों आदि के अभाव में वृषभों-समर्थ मुनियों चारित्रभ्रंश की भी स्थिति बन जाती है।
द्वारा रक्षित शून्य उपाश्रय में साध्वियां रह सकती हैं। वृषभों २३१९.एए चेव य दोसा, सविसेसतरा हवंति सेसेसु। के अभाव में गृहस्थों के निश्रा में वृत्ति आदि से सुगुप्त
रच्छामुहमादीसुं, थिरा-थिरेहिं थिरे अहिया॥ उपाश्रय में रहे और भोजिक-ग्रामस्वामी को वह बता दे। ये ही सारे दोष शेष रथ्यामुख, शृंगाटक, त्रिक-चतुष्क मार्ग के आवास में रहने से सविशेष होते हैं। तरुण दो प्रकार
कप्पइ निग्गंथाणं नो आवणगिहंसि वा के होते हैं-स्थिर-वहीं के वास्तव्य और अस्थिर-अन्यत्र
रच्छामुहंसि वा सिंघाडगंसि वा तियंसि वा रहने वाले। स्थिर तरुणों से ही अधिक दोष होते हैं।
चउक्कंसि वा चच्चरंसि वा अंतरावणंसि २३२०.अद्धाणनिग्गयादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असईए।
वा वत्थए॥ __ रच्छामुहे चउक्के, आवण अंतो दुहिं बाहिं। जो मार्ग में प्रस्थित हैं, वे मुनि निर्दोष वसति की तीन
(सूत्र १३) बार गवेषणा करे, प्राप्त न होने पर साध्वियों को पहले रथ्यामुख वाले गृह में स्थापित करें। उसमें भी अंतर्मुखवाली
२३२५.एसेव कमो नियमा, निग्गंथाणं पि नवरि चउलहुगा। रथ्या में, उसके न मिलने पर द्विधामुख वाले रथ्यागृह में
सुत्तनिवातो अंतोमुहम्मि तह चेव जयणाए। और उसकी प्राप्ति न होने पर बहिर्मुखवाले रथ्यागृह में रखें।
नियमतः यही क्रम मुनियों के लिए भी है। आपण गृह रथ्यामुखगृह की अप्राप्ति होने पर आपणगृह, उसके अभाव में
आदि में रहने पर ये दोष होते हैं। उनका प्रायश्चित्त है शृंगाटक गृह या त्रिकगृह या चतुष्कगृह या चत्वर गृह में, चतुलघु। याद अन्य उपाश्रय न ।'
चतुर्लघु। यदि अन्य उपाश्रय न मिले तो रथ्यागृह में उसके अभाव में अन्तरापण में साध्वियां ठहरें।
यतनापूर्वक रहा जा सकता है। यहां प्रकृतसूत्र का निपात है।' २३२१.अंतोमुहस्स असई, उभयमुहे तस्स बाहिरं पिहए।
उस स्थान के अभाव में अन्य स्थानों में यतनापूर्वक रहा जा ___तस्सऽसइ बाहिरमुहे, सइ ठइए थेरिया बाहिं।
सकता है। अंतर्मुख वाले रथ्यामुख के अभाव में उभयमुख वाले
अवंगुयदुवार-उवस्सय-पदं रथ्यागृह में रहे। उसका जो बहिर् द्वार है उसको ढक दे। उसके अभाव में बहिर्मुख वाले रथ्यागृह में रहे और वह द्वार
नो कप्पइ निग्गंथीणं अवंगुयदुवारिए सदा ढका रहे। स्थविर साध्वियां बाहर वाले द्वार के निकट उवस्सए वत्थए। एगं पत्थारं अंतो किच्चा बैठे।
एगं पत्थारं बाहिं किच्चा ओहाडिय२३२२.जत्थऽप्पयरा दोसा, जत्थ य जयणं तरंति काउं जे।
चिलिमिलियागंसि एवण्हं कप्पइ वत्थए। निच्चमवि जंतियाणं, जंतियवासो तहिं वुत्तो॥
(सूत्र १४) जहां अल्पतर दोष होते हों और जहां यतना करना शक्य १. यह कारणिक सूत्र अपवाद सूत्र है। अन्य उपाश्रय न मिलने पर आपणगृह आदि में रहा जा सकता है।
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