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पहला उद्देशक
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साथ भाई भी मारा गया। उसने राजा से कहा। बहुत खेद आदिपुरुष चन्द्रगुप्त से बिन्दुसार और उससे अशोकश्री और प्रगट किया। परिवारसहित रानी दीक्षा के लिए उद्यत हुई। उससे उत्कृष्ट संप्रति महाराज रहे। उन्होंने नगर के द्वारजिनेश्वरदेव के पास सबका संहरण किया। अग्निकुमारदेव संलोक-चारों द्वार पर दान का प्रवर्तन किया, वणि विपणि" में उपपन्न स्कन्दक ने संवर्तक वायु की विकुर्वणा कर सारे से साधुओं को वस्त्र दान की व्यवस्था की। महाराज संप्रति नगर का दाह कर डाला।'
त्रसजीवों के प्रतिक्रामक (संरक्षक) तथा श्रमणसंघ के ३२७५.कोसंबाऽऽहारकते, अज्जसुहत्थीण दमगपव्वज्जा। प्रभावक थे। ___ अव्वत्तेणं सामाइएण रणो घरे जातो॥ ३२७९.ओदरियमओ दारेसु, चउसु पि महाणसे स कारेति।
कौशाम्बीनगर में आहार के लिए एक द्रमक आर्य जिंताऽऽणिते भोयण, पुच्छा सेसे अभुत्ते य॥ सुहस्ती के पास प्रवजित हुआ। वह अव्यक्त सामायिक में ३२८०.साहण देह एयं, अहं भे दाहामि तत्तियं मोल्लं। मरकर राजा के घर में उत्पन्न हुआ।
णेच्छंति घरे घेत्तुं, समणा मम रायपिंडो ति॥ (कौशांबीनगर में आर्य सुहस्ती समवसृत हुए। साधु गांव
राजा संप्रति ने सोचा-पूर्वजन्म में मैं औदरिक-द्रमक में भिक्षा के लिए घूमने लगे। द्रमक ने देखा। उसने साधुओं था। यह सोचकर उन्होंने नगर के चारों द्वारों पर सत्राकार से आहार मांगा। साधु बोले-आचार्य जाने और तुम जानो। बड़े-बड़े भोजनालय करवाये। कोई भी आते-जाते वहां वह आचार्य के पास गया। आचार्य ने ज्ञानोपयोग से जान भोजन कर सकता था। एक बार राजा ने रसोइये से पूछालिया कि यह प्रवचन का उपकारी होगा। उसे दीक्षित कर, दीन आदि को देने के पश्चात् जो भोजन बचता है उसका सामायिक कराई। वह भूखा तो था ही। बहुत खा लिया। मर क्या करते हो? उन्होंने कहा-हम घर ले जाते हैं। राजा ने कर वह उस अव्यक्तसामायिक के प्रभाव से अंधे कुणाल- कहा-वह बचा भोजन साधुओं को दान में दे दो। मैं उतने कुमार के घर में पुत्ररूप में जन्मा।)
का मूल्य तुमको दे दूंगा। श्रमण मेरे महलों से भोजन लेना ३२७६.चंदगुत्तपपुत्तो य, बिंदुसारस्स नत्तुओ। नहीं चाहते, क्योंकि वे इसे राजपिंड मानते हैं।
असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति काकणिं॥ ३२८१.एमेव तेल्लि -गोलिय-पूविय-मोरंड-दुस्सिए चेव। चन्द्रगुप्त के प्रपौत्र बिन्दुसार महाराज का पौत्र अशोकश्री जं देह तस्स मोल्लं, दलामि पुच्छा य महगिरिणो॥ का पुत्र कुणाल नाम का अंधापुत्र आपसे 'काकणी' अर्थात् इसी प्रकार महाराज संप्रति ने तैलिकों को तैल, गोलिकों राज्य की याचना करता है।
को तक्र आदि, पौपिकों को अपूपकादि, मोरंडिकों' को तिल (राजा ने पूछा-अंधे के लिए राज्य का क्या प्रयोजन? आदि के मोदक और दौष्किकों को वस्त्र-ये सारे पदार्थ उसने कहा-उसके पुत्र के लिए याचना है। राजा ने पुत्र को साधुओं को यथेष्ट देने के लिए कह दिया। जो पदार्थ दिए देखा। उसका नाम संप्रति किया। उसे राज्य दिया।) जायेंगे, उसका मूल्य राज्य से दिया जाएगा। एक बार ३२७७.अज्जसुहत्थाऽऽगमणं, द8 सरणं च पुच्छणा कहणा। आचार्य महागिरि ने आर्य सुहस्ती से पूछा। (और कहा-आप
पावयणम्मि य भत्ती, तो जाता संपतीरणो॥ जानकारी करें कि कहीं राजा लोगों को इन सब पदार्थों के एक बार आर्य सुहस्ती उज्जैनी में समवसत हए। आर्य लिए बाध्य तो नहीं कर रहा है?) सुहस्ती को देखकर राजा को जातिस्मृति हुई। उसने गुरु से ३२८२.अज्जसुहत्थि ममत्ते, अणुरायाधम्मतो जणो देती। पूछा-अव्यक्त सामायिक का क्या फल है? गुरु ने कहा
संभोग वीसुकरणं, तक्खण आउट्टणे नियत्ती॥ राज्य आदि की प्राप्ति। आचार्य से और अनेक तथ्य सुनकर आर्य सुहस्ती का अपने शिष्यों के प्रति ममत्व था। महाराज संप्रति के मन में प्रवचन के प्रति भक्ति के भाव उन्होंने आचार्य महागिरी को कहा-'अनुराजधर्म' अर्थात् उत्पन्न हुए।
प्रायः लोग राजधर्म का अनुवर्तन करने वाले होते हैं। अतः ये ३२७८.जवमज्झ मुरियवंसे, दाणे वणि-विवणि दारसंलोए। लोग आहार आदि देते हैं। आचार्य महागिरी ने आर्य सुहस्ती
तसजीवपडिक्कमओ, पभावओ समणसंघस्स॥ के इस कथन पर उनसे संभोग विच्छेद कर डाला। यह मौर्यवंश यवमध्य की भांति है। जैसे यव मध्य में पृथुल देखकर आर्य सुहस्ती का चिंतन तत्काल मुड़ा, चिंतन किया और आदि-अन्त में क्षीण होता है, वैसे ही मौर्यवंश का और उससे निवृत्त हो गए। १,२. पूरे कथानक के लिए देखें कथा परिशिष्ट, नं. ८७,८८।
४. विपणी-लघु आपण। ३. वणी-बृहत्तर आपण।
५. मोरंड-तिल आदि के मोदक। उसको बेचने वाले मोरंडक। For Private & Personal Use Only
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