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बृहत्कल्पभाष्यम्
३२६४.अंबट्ठा य कलंदा, विदेहा विदका ति य। ३२७०.एत्थ किर सण्णि सावग, हारिया तुंतुणा चेव, छ एता इब्भजातिओ।।
जाणंति अभिग्गहे सुविहियाणं। अंबष्ठ, कलिन्द, वैदेह, विदक, हारित, तुन्तुण-ये छह
एतेहिं कारणेहिं, इभ्यजातियां मानी जाती थीं। इन जातिवाले व्यक्ति जात्यार्य
बहिगमणे होंतिऽणुग्घाया। कहलाते थे।
३२७१.आणादिणो य दोसा, विराहणा खंदएण दिट्ठतो। ३२६५.उग्गा भोगा राइण्ण खत्तिया तह य णात कोरव्वा।
एतेण कारणेणं, पडुच्च कालं तु पण्णवणा॥ __ इक्खागा वि य छट्ठा, कुलारिया होति नायव्वा॥ यहां आर्यक्षेत्र में संज्ञी-अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्य तथा
उग्र, भोग, राजन्य, क्षत्रिय, ज्ञात, कौरव, इक्ष्वाकु-ये श्रावक रहते हैं। वे सुविहित साधुओं के अभिग्रह को जानते छह (क्षत्रिय और कौरव को एक मानने पर) कुलार्य माने हैं। उसकी पूर्ति यहां होती है। इन कारणों से आर्यक्षेत्र में जाते हैं।
विहरण करना चाहिए। उसके बाहर जाने पर चार अनुद्घात ३२६६.जम्मण-निक्खमणेसु य,
मास का प्रायश्चित्त विहित है। आज्ञाभंग आदि दोष तथा तित्थकराणं करेंति महिमाओ। आत्म-संयमविराधना भी होती है। यहां स्कंधक का दृष्टांत भवणवइ-वाणमंतर-जोइस
है। यह वर्धमानस्वामी के काल की अपेक्षा से कहा गया है।
वेमाणिया देवा॥ अब महाराज संप्रति के काल की अपेक्षा से प्रज्ञापना की जा आर्यक्षेत्र में विहार का कारण
रही है-जहां-जहां ज्ञान-दर्शन और चारित्र का उत्सर्पण होता आर्यक्षेत्र में तीर्थंकरों के जन्म, निष्क्रमण आदि के अवसर हो उस-उस क्षेत्र में विहार करना चाहिए। पर भवनपति, वानमंतर ज्योतिष्क और वैमानिक देव महिमा ३२७२.दोच्चेण आगतो खंदएण वादे पराजितो कुवितो। कैरते हैं।
खंदगदिक्खा पुच्छा, णिवारणाऽऽराध तव्यज्जा॥ ३२६७.उप्पण्णे णाणवरे, तम्मि अणंते पहीणकम्माणो। ३२७३.उज्जाणाऽऽयुध णूमण, णिवकहणं कोव जंतयं पुव्वं ।
तो उवदिसंति धम्म, जगजीवहियाय तित्थकरा॥ बंध चिरिक्क णिदाणे, कंबलदाणे रयोहरणं ।। उस क्षेत्र में घाती कर्मों के क्षीण होने पर तीर्थंकरों के ३२७४.अग्गिकुमारुववातो, चिंता देवीय चिण्ह रयहरणं। अनन्तज्ञान केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है और तब वे जगत् खिज्जण सपरिसदिक्खा, जिण साहर वात डाहो य॥ के जीवों के हित के लिए धर्म का उपदेश देते हैं।
पालक श्रावस्ती नगरी में दूत बनकर आया। वहां वाद ३२६८.लोगच्छेरयभूतं, ओवयणं निवयणं च देवाणं। में स्कंदक से पराजित हो गया। वह स्कंदक पर अत्यंत
संसयवाकरणाणि य, पुच्छंति तहिं जिणवरिदे॥ कुपित हो गया। स्कंदक सुव्रतस्वामी के पास दीक्षित हो मनुष्यलोक में देवों का आश्चर्यकारी गमन-आगमन गया। एक दिन उसने भगवान् से पूछा-मैं कुंभकारकृत नगर देखकर अनेक जीव प्रतिबुद्ध होते हैं। आर्यजनपद में अनेक जाना चाहता हूं। भगवान् ने निवारण करते हुए कहा-वहां जीव अपने संशयों का निवारण करने के लिए जिनेन्द्र भगवान् उपसर्ग होगा। तुम्हारे अतिरिक्त सभी आराधक होंगे। को पूछते हैं और समाधान प्राप्त करते हैं। जिनेश्वर देव भी स्कंदक अपने पांच सौ मुनियों के साथ चला और असंख्य प्रश्नकर्ताओं के प्रश्नों का एक साथ उत्तर देकर कुंभकारकृत नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरा। पालक ने उनके संशयों को मिटा देते हैं।
उद्यान में आयुधों को छपाकर रखवा दिए। राजा से ३२६९.समणगुणविदुऽत्थ जणो,
कहा-आपका राज्य हड़पने आया है। राजा कुपित हो गया। सुलभो उवधी सतंतमविरुद्धो। पालक ने तब साधुओं को पीलना प्रारंभ किया। स्कन्दक ने आरियविसयम्मि गुणा,
कहा-पहले मुझे पीलो। पालक ने उसे खंभे से बांध डाला। णाण-चरण-गच्छवुड्डी य॥ जो मुनि कोल्हू में पीले जा रहे थे उनके रक्त से सने वस्त्रों आर्यक्षेत्र के लोग श्रमणगुणों को जानने वाले होते हैं। वहां को देखकर स्कंदक ने निदान किया। उसकी बहन ने साधुओं के लिए उपयुक्त उपधि सिद्धान्तानुसार सुलभता से कंबलरत्न दिया था। स्कंदक ने उसका रजोहरण कर दिया। प्राप्त होती है। आर्यक्षेत्र में विहरण के ये गुण हैं तथा यहां स्कंदक मरकर अग्निकुमारदेवों में उपपन्न हुआ। रक्त से ज्ञानवृद्धि, चरणवृद्धि तथा गच्छवृद्धि भी होती है।
सने रजोहरण को देखकर रानी ने सोचा-सभी साधुओं के
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