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बृहत्कल्पभाष्यम् समझना चाहिए। इस संदर्भ में भी पूर्वार्थवाचक पुरः शब्द है। (५) अन्य पुरुष, वह द्रव्य, उस पंक्ति में। इसका तात्पर्य है कि साधु के आगमन से पूर्व उसके निमित्त (६) अन्य पुरुष, वह द्रव्य, अन्य पंक्ति में। किए जाने वाले कर्म पुरःकर्म हैं। इस विधि में प्रासुक- (७) अन्य पुरुष, अन्य द्रव्य, उस पंक्ति में। अप्रासुक नहीं जाना जाता। इसकी शोधि-प्रायश्चित्त भी नहीं (८) अन्य पुरुष अन्य द्रव्य, अन्य पंक्ति में। हो सकता। भंते! बहुत सारी प्रवृत्तियां दायक पहले करता १८२४.कप्पइ समेसु तह सत्तमम्मि तइयम्मि छिन्नवावारे। है, दायक ने पहले बहुत प्रवृत्तियां की हैं ये सारी प्रवृत्तियां
अत्तट्ठियम्मि दोसुं, सव्वत्थ य भयसु कर-मत्ते॥ पुरःकर्म के अंतर्गत आयेंगी।
इन विकल्पों में से सम विकल्प अर्थात् दूसरे, चौथे, छठे १८१९.कामं खलु पुरसद्दो, पच्चक्ख-परोक्खतो दुहा होइ। तथा आठवें विकल्प में लेना कल्पता है। सातवें विकल्प में
तह वि य न पुरेकम्मं, पुरकम्मं चोदग! इमं तु॥ भी कल्पता है, क्योंकि पुरुषान्तर से अन्य द्रव्य दिया जा आचार्य कहते हैं-पुरः शब्द प्रत्यक्ष और परोक्ष-दोनों रहा है। तीसरे विकल्प में छिन्नव्यापार होने के कारण अर्थ देता है, यह अनुमत है। फिर भी वे क्रियाएं पुरःकर्म नहीं कल्पता है। जैसे साधु को दान देने के लिए हाथ धोए, वह होतीं। हे वत्स! पुरःकर्म की व्याख्या यह है।
यदि अन्य प्रवृत्ति में लग जाता है तो कल्पता है। दो १८२०.हत्थं वा मत्तं वा, पुव्विं सीतोदएण जं धोवे। विकल्पों-प्रथम और पंचम में यदि वह द्रव्य आत्मार्थित
समणवाए दाया, पुरकम्मं तं विजाणाहि॥ होता है तो वह कल्पता है। सर्वत्र अर्थात् आठों विकल्पों में श्रमण को भिक्षा से पूर्व दाता हाथ और पात्र को सचित्त हस्त और मात्रक उदकार्द्र हो तो नहीं कल्पता, अन्यथा जल से धोता है, उसे पुरःकर्म जानना चाहिए।
कल्पता है। १८२१.कस्स त्ति पुरेकम्मं, जइणो तं पुण पभू सयं कुज्जा। १८२५.अच्चुसिण चिक्कणे वा, कूरे धुविउं पुणो पुणो देइ। अहवा पभुसंदिट्ठो, सो पुण सुहि पेस बंधू वा॥
आयमिऊणं पुव्वं, दइज्ज जइणं पढमयाए।। यह पुरःकर्म किसके होता है? इस प्रश्न के उत्तर में कहा दाता जब यह देखता है कि कूर अत्युष्ण तथा चिकना है गया है कि यह साधु के लिए होता है। वह पुरःकर्म गृहस्वामी तो वह बार-बार हाथ धोकर मुनि को कर देता है, तब स्वयं करता है अथवा गृहस्वामी द्वारा संदिष्ट दूसरा कोई पुरःकर्म होता है। अथवा पहले आचमन कर, हस्त या पात्र करता है। गृहस्वामी द्वारा संदिष्ट के तीन प्रकार हैं-सुहृद्, धोकर पहले साधुओं को देता है, फिर दूसरों को परोसता है दास-दासी अथवा माता, भगिनी आदि।
तब भी पुरःकर्म होता है। १८२२.दमए पमाणपुरिसे,जाए पंतीए ताण मोत्तूणं। १८२६.दाऊण अन्नदव्वं, कोई दिज्जा पुणो वि तं चेव।
सो पुरिसो तं वऽन्नं, तं दव्वं अन्नो अन्नं वा॥ अत्तट्टिय-संकामियगहणं गीयत्थसंविग्गे।। द्रमक-भोजन परोसने के लिए नियुक्त कर्मकर, प्रमाण- पंक्ति में दूसरों को अन्य द्रव्य देकर उसी अनेषणाकृत पुरुष देयद्रव्यस्वामी-इन्होंने पंक्ति-भोज्य में पुरःकर्म किया द्रव्य को साधु को देता है, इस प्रकार पूर्व प्रवृत्ति के छिन्न हो है, उसको छोड़कर, वे अन्य पंक्ति में चले जाते हैं और वे जाने पर, आत्मार्थित हो जाने पर वह द्रव्य कल्पता है। यदि परिणत हस्त हों तो उनसे लेना कल्पता है। वह पुरुष । अनेषणीय द्रव्य भी संक्रामित हो जाने पर उसका ग्रहण उस पंक्ति में अथवा अन्य पंक्ति में, वह द्रव्य अथवा अन्य कल्पता है। गीतार्थ इसे ग्रहण कर सकता है। ग्रहण करने पर द्रव्य-प्रत्येक के चार-चार विकल्प होते हैं।
भी वह संविग्न है। १८२३.सो तं ताए अन्नाए बिइअओ अन्न तीए दो वऽन्ने। १८२७.गीयत्थग्गहणेणं, अत्तट्ठियमाइ गिण्हई गीतो। एमेव य अन्नण वि, भंगा खलु होति चत्तारि।।
संविग्गग्गहणेणं, तं गिण्हतो वि संविग्गो। अष्ट भंगों की रचना इस प्रकार है
गीतार्थ मुनि के ग्रहण करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि (१) वह पुरुष, वह द्रव्य और उस पंक्ति में।
यह आत्मार्थित द्रव्य है। संक्रामित द्रव्य को भी गीतार्थ ही (२) वह पुरुष, वह द्रव्य, अन्य पंक्ति में।
ग्रहण कर सकता है। संविग्न के ग्रहण से यह ज्ञात होता है (३) वह पुरुष, अन्य द्रव्य, उस पंक्ति में।
कि आत्मार्थित आदि द्रव्य लेने वाला गीतार्थ संविग्न ही होता (४) वह पुरुष, अन्य द्रव्य, अन्य पंक्ति में।
है, असंविग्न नहीं। इसी प्रकार अन्य पुरुष के आधार पर भी चार विकल्प १८२८.पुरतो वि हु जं धोयं, अत्तट्ठाए न तं पुरेकम्म। होते हैं
तं उदउल्लं ससिणिद्धगं व सुक्खे तहिं गहणं ।।
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