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पहला उद्देशक
साधु के समक्ष भी अपने लिए धौत हस्त या पात्र भी पुरःकर्म नहीं होता, उदका और सस्निग्ध होता है। सूख जाने पर उनसे लेना पुरःकर्म नहीं होता। १८२९.तुल्ले वि समारंभे, सुक्के गहणेक्क एक्क पडिसेहो।
अन्नत्थ छूढ ताविय, अत्तढे होइ खिप्पं तु॥ उदकाई और पुरःकर्म में अप्काय समारंभ तुल्य होने पर भी एक-एक उदकार्द्र में शुष्क होने पर ग्रहण करना कल्पता है, परन्तु एक-एक पुरःकर्म में शुष्क होने पर भी ग्रहण करने का निषेध है। हाथ या मात्रक को अपने स्व के लिए प्रासुक द्रव्य में डाल दे अथवा तापित कर दे तो शीघ्र ही ग्रहण किया जा सकता है। १८३०.चाउम्मासुक्कोसे, मासिय मज्झे य पंचग जहन्ने।
पुरकम्मे उदउल्ले, ससिणिद्धाऽऽरोवणा भणिया॥ उदक समारंभ पुरःकर्म का उत्कृष्ट अपराधपद है, उदका मध्यम तथा सस्निग्ध जघन्य अपराधपद है। उत्कृष्ट में प्रायश्चित्त है चार लघुमास, मध्यम में लघुमास और जघन्य में पांच रात-दिन। इस प्रकार पुरःकर्म उदका और सस्निग्ध की आरोपण कही गई है। १८३१.परिहरणा वि य दुविहा,
विहि-अविहीए अ होइ नायव्वा। पढमिल्लुगस्स सव्वं,
बिइयस्स य तम्मि गच्छम्मि॥ १८३२.तइयस्स जावजीव, चउथस्स य तं न कप्पए दव्वं।
तद्दिवस एगगहणे, नियट्ठगहणे य सत्तमए॥ परिहरणा भी दो प्रकार की जाननी चाहिए-विधि परिहरणा और अविधिपरिहरणा। अविधिपरिहरणा के सात प्रकार हैं(१) पहले के समस्त द्रव्य यावज्जीवन अकल्पनीय
होता है। (२) दूसरे के उसी गच्छ में यावज्जीवन। (३) तीसरे के उसी एक के सारा द्रव्य अकल्पनीय
होता है यावज्जीवन। (४) चौथे के वह द्रव्य यावज्जीवन। (५) पांचवे के उस दिन सब द्रव्य। (६) छठे के वह द्रव्य अकल्पनीय होता है। (७) सातवें में निवृत्त साधु को परिणत हाथ से ग्रहण
कल्पता है। १८३३.पढमो जावज्जीवं, सव्वेसिं संजयाण सव्वाणि।
दव्वाणि निवारेई, बीओ पुण तम्मि गच्छम्मि॥
१८३४.तइओ जावज्जीवं, तस्सेवेगस्स सव्वदव्वाई।
वारेइ चउत्थो पुण, तस्सेवेगस्स तं दव्वं ।। १८३५.सव्वाणि पंचमो तदिणं तु तस्सेव छट्ठो तं दव्वं ।
सत्तमओ नियट्टतो, गिण्हइ तं परिणयकरम्मि। पहला कहता है-जिसने जिसके लिए पुरःकर्म किया है, दोनों जब तक जीवित हैं तब तक स्वगच्छ-परगच्छ के सभी साधुओं के लिए सारे द्रव्यों का निवारण किया जाता है। दूसरा उसी गच्छ में सभी साधुओं के लिए यावज्जीवन सारे द्रव्य का निवारण करता है। तीसरा कहता है जिसके लिए पुरःकर्म किया उस अकेले को सारे द्रव्य अकल्पनीय होते हैं। चौथा कहता है वह द्रव्य अकेले उसके लिए परिहरणीय है। पांचवा कहता है-उसके घर में एक दिन तक सभी द्रव्य अकल्पनीय हैं। छठा कहता है-वह द्रव्य उस दिन न लिया जाए। सातवां कहता है-दाता का हाथ परिणत हो जाने पर, भिक्षा करके निवर्तमान मुनि उससे ग्रहण कर सकता है। १८३६.एगस्स पुरेकम्म, वत्तं सव्वे वि तत्थ वारिंति।
_-दव्वस्स य दुल्लभता, परिचत्तो गिलाणओ तेहिं।
जहां एक साधु के लिए पुरःकर्म किया है वहां सभी द्रव्यों का वारण किया जाता है। इससे द्रव्य की दुर्लभता हो जाने पर उन मुनियों द्वारा ग्लान मुनि परित्यक्त हो जाता है। १८३७.जेसिं एसुवएसो, आयरिया तेहि ऊ परिच्चत्ता।
खमगा पाहुणगा वि य, सुव्वत्तमजाणगा ते उ॥ यह उपदेश उन यथाच्छंदवादियों के लिए है क्योंकि उनकी इस प्रवृत्ति के द्वारा आचार्य, क्षपक और प्राघूर्णक परित्यक्त हो जाते हैं। उन्हें अपने प्रायोग्य दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति नहीं होती। वे यथाच्छंदवादी स्पष्टरूप से अज्ञअजानकार होते हैं। १८३८.अद्धाणनिग्गयाई, उब्भामग खमग अक्खरे रिक्खा।
मग्गण कहण पंरपर, सुव्वत्तमजाणगा ते वि॥ जो मुनि अध्वनिर्गत अर्थात् अन्यत्र गए हुए हों, उद्भ्रामक बहिर्गाम में भिक्षा के लिए गए हुए हों वे उस गृह में प्रवेश न कर दें जहां पुरःकर्म किया गया है, इसकी जानकारी देने के लिए तत्रस्थ मुनि एक क्षपक को वहां बिठा देते हैं। क्षपक के न होने पर उस घर की दीवार पर ये अक्षर लिख दे–'इस घर में पुरःकर्म किया है, कोई यहां से भिक्षा न ले।' ये अक्षर न लिख सके तो उस घर की दीवार पर रेखाएं खींच दे। उसके अभाव में साधुओं की मार्गणा कर, एकत्रित कर, उनको उस घर की जानकारी दे। वे साधु भी परम्परा से अन्य साधुओं को यह बात
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