________________
बताएं-इस प्रकार जो कहते हैं, करते हैं, वे स्पष्टरूप से अज्ञ हैं-ऐसा आचार्य का कथन है। १८३९.उन्भामग-अणुब्भामग-सगच्छ-परगच्छजाणणट्ठाए।
अच्छइ तहियं खमओ, तस्सऽसइ स एव संघाडो॥ १८४०.जइ एगस्स वि दोसा,
अक्खर न उ ताई सव्वतो रिक्खा। जइ फुसण संकदोसा,
हिंडंता चेव साहति॥ उद्भ्रामक बहिराम में भिक्षाटन करने वाले, अनुद्भ्रामक-मूल ग्राम में भिक्षाटन करने वाले, स्वगच्छ तथा परगच्छ इन सब साधुओं को जानकारी देने के लिए उस घर के आगे एक क्षपक बैठा रहता है। क्षपक के अभाव में जो संघाटक वहां आता है, वह बैठ जाता है। यदि उस संघाटक में से एक मुनि वहां नहीं बैठ सकता तो दूसरा मुनि अकेला वहां बैठता है। यदि उस अकेले मुनि के समक्ष कोई स्त्रीसमुत्थ दोष आता है तो वह पुरःकर्म सूचक अक्षर उस घर की भींत पर लिख कर अपने उपाश्रय में चला जाता है। यदि उन अक्षरों को लिखने में असमर्थ हो तो साधुजनसांकेतिकी रेखा कर दे। उस रेखा की स्पर्शना की आशंका से दोष जान पड़े तो वे ही मुनि भिक्षाटन करते हुए अन्यान्य मुनियों को बताएं। १८४१.एसा अविही भणिया, सत्तविहा खलु इमा विही होइ।
तत्थाई चरिमदुए, अत्तट्ठियमाइ गीयस्स॥ यह सात प्रकार की अविधिपरिहरणा बताई गई है। विधिपरिहरणा इस प्रकार है। वह आठ प्रकार की है। उसमें प्रथम और अंतिम ये दो प्रकार आत्मार्थित आदि होने पर गीतार्थ का ग्रहण होता है। (स्पष्टार्थ आगे की गाथा में) १८४२.एगस्स बीयगहणे, पसज्जणा तत्थ होइ कब्बट्ठी।
वारण ललियासणिओ, गंतूणं कम्म हत्थ उप्फोसे॥ वे आठ प्रकार ये हैं-(१) एक द्वारा किये पुरःकर्म का दूसरे के हाथ से ग्रहण। (२) प्रसजना वहां होती है। (३) कल्पस्थिका। (४) कारण ललिताशनिक। (५) जाकर। (६) कर्म। (७) हस्त। (८) उप्फोस-उत्स्पर्शन। (व्याख्या आगे की गाथाओं में)। १८४३.एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ।
जयऽजाणगा भवंती, परिहरियव्वं पयत्तेण॥ किसी एक दायक ने पुरःकर्म किया, यदि दूसरा व्यक्ति उस द्रव्य को स्वयं देता है और यदि साधु अज्ञ हों तो वे प्रयत्नपूर्वक उसका परिहार करे, न ले।
=बृहत्कल्पभाष्यम् १८४४.समणेहिं अभणंतो, गिहिभणिओ अप्पणो व छंदेणं।
मोत्तु अजाणग मीसे, गिण्हति उ जाणगा साहू। दूसरे व्यक्ति को श्रमणों ने कहीं कहा कि हमें वह द्रव्य दो, परंतु वह अन्य गृहस्थ के द्वारा कहे जाने पर अथवा अपने स्वयं के अभिप्राय से वह द्रव्य देता है तो अज्ञ अर्थात अगीतार्थ अथवा अगीतार्थ मिश्र मुनियों को छोड़कर ज्ञायकगीतार्थ मुनि उस आत्मार्थित द्रव्य को ग्रहण करता है। १८४५.अम्हठ्ठसमारद्धे तद्दव्वण्णेण किह णु निहोस।
सविसन्नाहरणेणं, मुज्जइ एवं अजाणतो॥ साधुओं के लिए बनाया हुआ वह द्रव्य यदि दूसरा देता है तो वह निर्दोष कैसे हो सकता है? यहां विषयुक्त आहार का उदाहरण है। किसी के लिए विषमिश्रित आहार बनाया गया, वह स्वयं दाता न देकर, यदि कोई दूसरा व्यक्ति उस भोजन को देता है तो क्या वह सदोष नहीं होगा? परन्तु अगीतार्थ उसमें मूढ़ हो जाता है। १८४६.एगेण समारद्धे, अन्नो पुण जो तहिं सयं देइ।
जइ जाणगा उ साहू, परिभोत्तुं जे सुहं होइ।। एक ने पुरःकर्म किया और दूसरा व्यक्ति यदि स्वयं उस द्रव्य को मुनि को देता है तो ज्ञायक है, गीतार्थ मुनि है, वह उसका सुखपूर्वक परिभोग कर सकता है। १८४७.गीयत्थेसु वि भयणा, अन्नो अन्नं व तेण मत्तेणं ।
विप्परिणयम्मि कप्पइ, ससिणिछुदउल्लु पडिकुट्ठा॥ गीतार्थ मुनियों के लिए भी भजना है। अन्य पुरुष अथवा अन्य द्रव्य को पुरःकर्मकृत मात्रक से देता है और यदि वह मात्रक अप्काय आदि से विपरिणत हो तो कल्पता है। दायक का हाथ सस्निग्ध या उदका हो तो वह भिक्षा प्रतिकृष्ट है, उसे लेना नहीं कल्पता। १८४८.तरुणीउ पिडियाओ, कंदप्पा जइ करे पुरेकम्म।
पढम-बिइयासु मोत्तुं, सेसे आवज चउलहुगा॥ कुछ तरुण युवतियां एकत्रित हुईं। साधु को भिक्षा के लिए आते देख कंदर्प के वशीभूत होकर एक युवति ने पुरःकर्म किया। साधु भिक्षा लिए बिना लौटने लगा। तब दूसरी युवति बोली-कुछ ठहरें। मैं आपको भिक्षा दूंगी। साधु के पुनः आने पर उसने भी पुरःकर्म कर दिया। साधु के निवर्तित होने पर तीसरी युवति यदि पुनः आने के लिए कहती है तो जानना चाहिए कि ये मेरा उपहास कर रही हैं। पहली, दूसरी युवति को छोड़कर शेष युवतियां यदि मुनि को प्रतिनिवर्तन के लिए कहती हैं और मुनि यदि प्रतिनिवर्तन करता है तो उसे चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org