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पहला उद्देशक
उनके साथ भिक्षाचर्या के लिए घूमते हुए, वे मुनि ही प्रमाणभूत होते हैं। क्योंकि वे ही जान सकते हैं कि यह भिक्षा स्वार्थनिष्पादित है-स्वयं के लिए की हुई है और यह अपूर्व भिक्षा है-संयतों के लिए स्थापित है। १८०९.वंदेण इंति निति व, जुव मज्झे थेर इथिओ तेणं।
ठंति न य नाडएसुं, अह ठंति न पेह रागादी॥ स्त्रीसंकुल स्थानों में मुनि समूह में जाते-आते हैं। जो युवा मुनि हैं उनको मध्य में रखा जाता है। जिस ओर स्त्रियां होती हैं, उस ओर स्थविर रहते हैं। जहां नाटक आदि होते हैं, वहां वे नहीं ठहरते। यदि कारणवश वहां रुकना पड़ता है तो वे वहां नर्तकी आदि का रूप नहीं देखते। यदि दृष्टि उस
ओर सहसा चली जाए तो राग आदि नहीं करते। १८१०.सीलेह मंखफलए, इयरे चोयंति तंतुमादीसु।
अभिजोयंति सवित्तिसु, अणिच्छि फेडंतऽदीसंता॥ इतर अर्थात् असंविग्न देवकुलिक। उनको वे साधु तन्तुजाल-मकड़ी के जाल आदि को साफ करने के लिए प्रेरित करते हैं। वे कहते है-मंखफलक की भांति देवकुल का परिमार्जन करो। वे देवकुलिक सवृत्तिक होते हैं। वे साधु उनकी निर्भर्त्सना करते हैं। यदि वे तन्तुजाल आदि को हटाना न चाहें तो किसी के न देखते हुए स्वयं मुनि उनका अपनयन करते हैं। १८११.उज्जलवेसे खुड्डे, करिति उव्वट्टणाइचोक्खे अ।
न य मुच्चंतऽसहाए, दिति मणुन्ने य आहारे॥ ____ वे मुनि क्षुल्लक मुनियों को उज्ज्वलवेष धारण करवाते हैं, उद्वर्तन आदि से उनके शरीर को सुन्दर बना देते हैं, उन क्षुल्लकों को वे एकाकी नहीं छोड़ते और उनको मनोज्ञ आहार आदि लाकर देते हैं। १८१२.आतुरचिण्णाई एयाई, जाई चरइ नंदिओ।
सुक्कत्तेणेहि जावेहि, एयं दीहाउलक्खणं॥ गाय ने वत्स से कहा-वत्स! इस नंदिक (मेष) को जो मनोज्ञ आहार आदि दिया जा रहा है, वह सारा आतुरचीर्ण है अर्थात् मरणासन्न रोगी को दिए जाने वाले पथ्य-अपथ्य आहार की भांति है। इसलिए हे वत्स! तू शुष्क तृणों से अपने शरीर का निर्वाह कर। यह दीर्घ आयुष्य का लक्षण है।' इसी प्रकार ये जो असंविग्नक्षुल्लक मनोहर आहार आदि से लालित-पालित हो रहे हैं यह सारा नन्दिक (मेष) के लालन-पालन की तरह ही है।) १८१३.न मिलंति लिंगिकज्जे, अच्छंति व मेलिया उदासीणा।
बिंति य निब्बंधम्मि, करेमु तिव्वं खु भे दंडं। ये लिंगी-अन्यलिंगी मुनि अपने गृह, धन आदि के १.देखें कथा परिशिष्ट, नं. ६६।
विवादास्पद कार्यों के लिए एकत्र नहीं मिलते और यदि मिलते हैं तो उदासीन ही रहते हैं। परस्पर बातचीत कर विवाद को नहीं निपटाते। वे आकर संविग्न मुनियों को कहते हैं-हमारे विवाद का समाधान करो। इस प्रकार निर्बन्ध करने पर साधु कहते हैं-हम विवाद का समाधान कर देंगे, परंतु आपके दोनों पक्षों को तीव्र दंड देंगे। १८१४.अद्धाणनिग्गयादी, थाणुप्पाइयमहं व सोऊण।
गेलन्न-सत्थवसगा, महाणदी तत्तिया वा वि|| मार्ग में जाते हुए सहसा उस गांव को प्राप्त हो गए अथवा स्थानौत्पातिकमह-वहां के श्रावकों ने कोई अपूर्व उत्सवविशेष करना प्रारंभ कर दिया अथवा उत्सवविशेष की बात सुनकर या किसी ग्लान मुनि की सेवा में व्याप्त हो गए या किसी सार्थ के परवश होने के कारण या मार्गगत महानदी आ जाने पर-इन कारणों से अथवा इनमें से किसी भी कारण से क्षेत्रप्रत्युपेक्षकों को नहीं भेजा जाता। अतः अप्रत्युपेक्षित क्षेत्र में प्रवेश करना भी अनुचित नहीं है। १८१५.समणुन्नाऽसइ अन्ने, वि पुच्छिउं दाणमाइ वज्जिंति।
दव्वाई पेहता, जइ लग्गंती तह वि सुद्धा॥ यदि उस क्षेत्र में पूर्वप्रविष्ट समनोज्ञ मुनि हों तो उनके साथ भिक्षा के लिए जाए। वहां समनोज्ञ मुनि न हों और अन्य सांभोगिक मुनि हों तो उन्हें पूछकर दानश्राद्धकुलों को छोड़कर शेष कुलों में भिक्षाटन करे। शेष कुलों में द्रव्यतः क्षेत्रतः और भावतः शुद्ध एषणा करे। यदि वहां स्थापना आदि दोष लगते हैं, फिर भी उनकी एषणा शुद्ध है। १८१६.पुरकम्मम्मि य पुच्छा,
किं कस्साऽऽरोवणा य परिहरणा। एएसिं तु पयाणं,
पत्तेयपरूवणं वोच्छ॥ पुरःकर्म विषयक पृच्छा करनी चाहिए। पुरःकर्म क्या है ? किसका पुरःकर्म होता है? पुरःकर्म की आरोपणा क्या है ? पुरःकर्म का परिहरण कैसे किया जाता है?-इन चारों पदों की, प्रत्येक की, मैं प्ररूपणा करूंगा। १८१७.जइ जं पुरतो कीरइ, एवं उट्ठाण-गमणमादीणि।
होति पुरेकम्मं ते, एमेव य पुव्वकम्मे वि॥ १८१८.एवं फासुमफासुं, न विज्जए न वि य काइ सोही ते।
हंदि हु बहूणि पुरतो, कीरंति कयाणि पुव्वं च॥ जिज्ञासु कहता है-साधु भिक्षा के लिए घर में आ गए। उनके आगे दान देने के लिए उटना, चलना-फिरना आदि करना ये सारे पुरःकर्म होते हैं। इसी प्रकार पुरःकर्म को
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