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बृहत्कल्पभाष्यम्
अपनी शक्ति का सर्वथा गोपन नहीं करता, किन्तु पूर्ण शक्ति लगाकर कार्य संपन्न करता है।
(प्रावचनी धर्मकथी, वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च। जिनवचनज्ञश्च कविः, प्रवचनमदभावयन्त्येते)
प्रवचनकार, धर्मकथा करनेवाला, वाद-विवाद में निपुण, नैमित्तिक, तपस्वी, जिनवाणी का मर्मज्ञ, तथा कवि-ये सात व्यक्ति प्रवचन-जिनशासन की प्रभावना करते हैं। १७९९.साहम्मि-वायगाणं, खेम-सिवाणं च लब्भिइ पवित्तिं।
गच्छिहिति जहिं ताई, होहिंति न वा वि पुच्छइ वा॥ वहां जाने पर दूरदेश से समागत साधर्मिक मुनियों की तथा वाचक-आचार्य की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त होती है। क्षेम-शिव अर्थात् सुभिक्ष-दुर्भिक्ष आदि की अवगति होती है। अथवा जिस क्षेत्र में स्वयं जाता है वहां साधर्मिकों को पूछकर क्षेम-शिव आदि के विषय में जान लेता है। १८००.कुलमादीकज्जाई, साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं।
जे लोगविरुद्धाई, करेंति लोगुत्तराई च॥ वहां जाकर मैं कुल, गण आदि के कार्यों को संपादित करूंगा। जो लिंगी-पार्श्वस्थ आदि मुनि लोकविरुद्ध लोकोत्तर कार्य कर रहे हैं, उनको शिक्षा दूंगा। १८०१.एएहिं कारणेहिं, पुव्वं पडिलेहिऊण अइगमणं।
अद्धाणनिग्गयादी, लग्गा सुद्धा जहा खमओ॥ इन कारणों से रथयात्रा आदि में जाना है, यह सोचकर जाने से पूर्व वहां की प्रत्युपेक्षा कर पश्चात् अतिगमन करना चाहिए। जो मुनि यात्रा में प्रस्थित हैं और किसी क्षेत्र में अपूर्व उत्सव का योग प्राप्त हो जाए तो पूर्व प्रत्युपेक्षा के बिना भी उस क्षेत्र में जाए और अशुद्ध भक्त-पान ग्रहण का दोष हो जाने पर भी वे शुद्ध हैं। जैसे-क्षपक।' १८०२.नाऊण य अइगमणं, गीए पेसिंति पेहिउं कज्जे।
उवसय भिक्खायरिया, बाहिं उब्भामगादीया।। १८०३.सब्भाविक इयरे वि य, जाणंती मंडवाइणो गीया।
सेहादीण य थेरा, वंदणजुत्तिं बहिं कहए। चैत्यपूजा आदि कार्य उत्पन्न होने पर क्षेत्र-प्रत्युपेक्षा के लिए गीतार्थ मुनियों को भेजा जाता है। उनसे क्षेत्र-स्वरूप की जानकारी प्राप्त कर अतिगमन करना चाहिए। प्रत्युपेक्षा के ये विषय हैं मूलगांव में उपाश्रय है या नहीं। वहां भिक्षाचर्चा,
विचारभूमी कैसी है। बाह्य गांव में उद्भ्रामक भिक्षाचर्या है या नहीं। गीतार्थ मुनि जान जाते हैं कि मंडपों का निर्माण स्वाभाविक है अथवा ये संयतों के लिए किए हुए हैं। इस प्रकार प्रत्युपेक्षित क्षेत्र की जानकारी प्राप्त कर आचार्य अपने गच्छ के साथ उस अनुयानक्षेत्र में जाते हैं। स्थविर मुनि बाहर रहते हुए भी शैक्ष मुनियों को वंदनयुक्ति का कथन करते हैं-पार्श्वस्थ मुनियों की वंदनाविधि के विषय में बताते हैं। जिससे कि शैक्षों का मन विपरिणत न हो। १८०४.निस्सकडमनिस्से वा, वि चेइए सव्वहिं थुई तिन्नि।
वेलं च चेइयाणि य, नाउं एक्किक्किया वा वि॥ निश्राकृत (गच्छप्रतिबद्ध) अथवा अनिश्राकृत चैत्य में, सर्वत्र तीन स्तुतियां दी जाती हैं। चैत्य अधिक हो और वेला का अतिक्रमण होता हो तो प्रत्येक चैत्य में एक-एक स्तुति दी जा सकती है। १८०५.निस्सकडे ठाइ गुरू, कइवयसहिएयरा वए वसहि।
जत्थ पुण अनिस्सकडं, पूरिति तहिं समोसरणं॥ निश्राकृत चैत्य में आचार्य कुछेक परिणत शिष्यों के साथ रहते हैं और आचार्य की आज्ञा से वे शिष्य वहां से वसति में जा सकते हैं, बिना आज्ञा नहीं। जहां अनिश्राकृत चैत्य हो, वहां आचार्य समवसरण पूर्ण कर धर्मकथा करते हैं। १८०६.संविग्गेहि य कहणा, इयरेहिं अपच्चओ न ओवसमो।
पव्वज्जाभिमुहा वि य, तेसु वए सेहमादी वा॥ संविग्न मुनियों को धर्मकथा करनी चाहिए क्योंकि असंविग्न मुनियों के प्रति विश्वास नहीं होता और न उनसे उपशम अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि की प्राप्ति होती है। प्रव्रज्या ग्रहण करने के इच्छुक शैक्ष उन असंविग्नों के प्रति आकृष्ट हो जाते हैं। १८०७.पूरिति समोसरणं, अन्नासइ निस्सचेइएसुं पि।
इहरा लोगविरुद्धं, सद्धाभंगो य सड्ढाणं ।। असंविग्न मुनियों के न होने पर निश्राकृत चैत्यों में भी समवसरण पूरा कर धर्मदेशना देते हैं, अन्यथा लोकापवाद होता है। इससे श्रावकों का श्रद्धाभंग होता है। १८०८.पुव्वविद्वेहिं समं, हिंडती तत्थ ते पमाणं त।
साभाविअभिक्खाओ, विदंतऽपुव्वा य ठवियादी। जो क्षेत्र की प्रत्युपेक्षा के लिए पहले वहां गए हुए हैं,
१. एक तपस्वी था। वह शुद्ध भक्त-पान की गवेषणा करता हुआ नगरी में
घूम रहा था। बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे भक्त-पान की प्राप्ति नहीं हुई। इतने में उसने देखा कि एक श्राविका वन्दना कर भक्त-पान ग्रहण करने के लिए प्रार्थना कर रही है। मुनि ने पूर्ण यतनापूर्वक, पूछताछ कर भक्त-पान ग्रहण किया। परंतु यथार्थ में वह श्राविका नहीं थी।
उसने मुनि को छलने के लिए ही श्राविका का रूप बनाया था और आधाकर्मिक आहार-पानी मुनि को दिया था। इस स्थिति में भी मुनि अशुद्ध परिणामों वाली दात्री से गृहीत भक्त-पान शुन्द्र है।
(पिंडनियुक्ति २०९,१०,११)
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