________________
पहला उद्देशक पर भक्ति नहीं होती। उस स्थिति में चार गुरुमास का प्रायश्चित्त विहित है। १७८८.घट्ठाइ इयरखुड्डे, दटुं ओगुंडिया तहिं गच्छे।
उक्कुट्टधर-धणाईववहारा चेव लिंगीणं॥ १७८९.छिंदंतस्स अणुमई,
अमिलंत अछिंदओ य उक्खिवणा। छिद्दाणि य पेहंती,
नेव य कज्जेसु साहिज्जं॥ पार्श्वस्थ मुनियों के क्षुल्लकों को घृष्ट-मृष्ट (सजे-संवरे हुए) देखकर संविग्नक्षुल्लक जो मेले-कुचेले हैं, वे उन क्षुल्लकों के पास चले जाते हैं। वहां उनके बीच परस्पर उत्कृष्ट घर, धन आदि विषयक व्यवहार-विवाद होता है।
और विवाद को निपटाने के लिए संविग्नों को बुलाया जाता है। यदि उनके विवाद का समाधान किया जाता है तो समाधान देने वाले को गृह, धन आदि के अनुमोदन का दोष लगता है। यदि वे परस्पर नहीं मिलते और विवाद का अन्त नहीं आता है तो साधुओं को संघ से निकाल दिया जाता है। वे साधुओं के छिद्र देखते हैं। वे साधुओं के कार्य में सहायक नहीं होते। इसलिए रथयात्रा आदि में बिना प्रयोजन नहीं जाना चाहिए। १७९..चेइयपूया रायानिमंतणं सन्नि वाइ खमग कही।
संकिय पत्त पभावण, पवित्ति कज्जाइं उड्डाहो॥ निम्न कारणों से रथयात्रा आदि में अवश्य जाना चाहिए- चैत्यपूजा के लिए राजा का नियंत्रण प्राप्त होने पर, कोई श्रावक प्रतिष्ठा आदि कराने का इच्छुक हो, जहां वादी, क्षपक, धर्मकथी का आगमन होता हो, सूत्रार्थगत शंकाओं का समाधान करने के लिए, पात्र वहां योग्य शिष्य की प्राप्ति हो सकती है, संघ की प्रभावना होती है, आचार्य आदि की कुशलक्षेमवार्ता वहां प्राप्त होती है, कुल आदि के कार्य संपादित करने के लिए तथा उड्डाह आदि के निवारण के लिए। १७९१.सद्धावुड्डी रन्नो, पूयाए थिरत्तणं पभावणया।
पडिघातो य अणत्थे, अत्था य कया हवइ तित्थे। कोई राजा रथयात्रा महोत्सव करने का इच्छुक होकर यत्र-तत्र निमंत्रण भेजता है, उस निमंत्रण पर आनेवाले मुनि राजा की श्रद्धा में वृद्धि करते हैं। चैत्यपूजा से स्थिरता और तीर्थ की प्रभावना होती है। जैनशासन के प्रत्यनीकों का प्रतिघात होता है। तीर्थ के प्रति आस्था पैदा होती है। १७९२.एमेव य सन्नीण वि, जिणाण पडिमासु पढमपट्ठवणे।
मा परवाई विग्धं, करिज्ज वाई अओ विसइ॥
इसी प्रकार जो श्रावक पहली बार प्रतिमा-प्रतिष्ठा कराने का इच्छुक हो और उसमें मुनिगण की उपस्थिति होने पर उसकी श्रद्धा वृद्धिंगत होती है। वहां वादी इसलिए प्रवेश करता है कि प्रतिवादी उसमें विघ्न पैदा न कर सके। १७९३.नवधम्माण थिरत्तं, पभावणा सासणे य बहुमाणो।
अभिगच्छंति य विदुसा, अविग्घ पूया य सेयाए॥ नये श्रावकों का स्थिरीकरण होता है। जिनशासन की प्रभावना और बहुमान होता है। तत्रस्थ विद्वान् व्यक्ति उस वादी को सुनने आते हैं। पूजा भी विघ्नरहित संपन्न होती है और वह सबके श्रेयस् के लिए होती है। १७९४.आयाविंति तवस्सी, ओभावणया परप्पवाईणं।
जइ एरिसा वि महिम, उविति कारिंति सड्ढा य॥ समागत तपस्वी मुनि विविध तपस्याएं करते हैं। यह देखकर अन्य तीर्थकों को अपने-आप में लघुता का अनुभव होता है। श्रावक सोचते हैं-ऐसे-ऐसे महान् तपस्वी भी चैत्यपूजा की महिमा देखने आते हैं तो वे श्राद्ध विशेष श्रद्धाभाव से पूजा आदि कराते हैं। १७९५.आय-परसमुत्तारो, तित्थविवड्डी य होइ कहयंते।
अन्नोन्नाभिगमेण य, पूया थिरया य बहुमाणो॥ धर्मकथी द्वारा धर्मकथा करने पर स्व और पर का संसार सागर से निस्तरण होता है। तीर्थ की विवृद्धि होती है। अन्यान्यश्रावकों का अवबोध से पूजा में स्थिरता और बहुमान होता है। १७९६.निस्संकियं च काहिइ, उभए जं संकियं सुयहरेहिं।
अव्वोच्छित्तिकरं वा, लब्भिहि पत्तं दुपक्खाओ। वहां आने वाला मुनि सूत्र और अर्थ विषयक शंकाओं को श्रुतधर से समाधान प्रासकर निःशंकित हो जाता है। वहां अव्यवच्छित्तिकारक द्विपक्ष आधृत-गृहस्थपक्ष अथवा संयतपक्ष-शिष्य की प्राप्ति हो सकती है। १७९७.जाइ-कुल-रूव-धण-बलसंपन्ना इड्डिमंतनिक्खंता।
__ जयणाजुत्ता य जई, समेच्च तित्थं पभाविंति॥
जाति, कुल, रूप, धन तथा बल से संपन्न-ऐसे राजपुत्र आदि अभिनिष्क्रमण करने वाले तथा यतनायुक्त मुनि वहां आकर तीर्थ की प्रभावना करने हैं। १७९८.जो जेण गुणेणऽहिओ,
जेण विणा वा न सिज्झए जंतु। सो तेण तम्मि कज्जे,
सव्वत्थामं न हावेइ॥ जो मुनि जिस गुण से अधिक है, अतिशायी है, जिसके बिना जो कार्य सिद्ध नहीं होता, वह उस कार्य की संपन्नता में
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org