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सुरलोक में नित्य अर्थात् शाश्वतचैत्य होते हैं। भरत आदि के द्वारा कृत चैत्य भक्तिचैत्य कहलाते हैं। जहां भक्तिचैत्य से आदेश प्रकृत है, वह दो प्रकार का है- निश्राकृत और अनिश्राकृत निश्राकृत अर्थात् संघप्रतिबद्ध और अनिश्राकृत अर्थात् गच्छसाधारण से बद्ध। निश्रीकृत का परिहार कर अनिश्राकृत कल्पता है ।
१७७८. जीवं उद्दिस्स कडं, कम्मं सो वि य जया उ साहम्मी ।
सो वि य तइए भंगे, लिंगादीणं न सेसेसु ॥ जीव को उद्दिष्ट कर जो किया जाता है वह भी यदि जीव है तो जो साधर्मिक है वह भी साधर्मिक लिंग से अथवा प्रवचन से साधर्मिक की मीमांसा में तृतीय भंगवर्ती (लिंग से और प्रवचन से) साधर्मिक होता है, शेष भंगवर्ती नहीं।
१७७९. संवट्टमेह- पुप्फा, सत्यनिमित्तं कया जइ जईणं ।
न हु लब्भा पडिसिन्धुं किं पुण पडिमट्ठमारचं ॥ शास्ता तीर्थंकर के निमित्त देवताओं द्वारा समवसरण में कृत संवर्तक मेघ तथा पुष्पवृष्टि मुनियों के लिए प्रतिषेध का विषय नहीं होता है, वे वहां समवसरण में बैठते हैं तो फिर अजीव प्रतिमाओं के लिए किया हुआ आरंभ कैसे प्रतिषिद्ध होगा ?
१७८०. तित्थयरनाम गोयस्स खयग्रा अवि य दाणि साभव्वा ।
धम्मं कहेइ सत्था, पूयं वा सेवई तं तु ॥ तीर्थंकर नामकर्म और गोत्रकर्म के क्षय के लिए धर्म का उपदेश देते हैं तथा पूर्वोक्त पूजा महिमा का आसेवन करते हैं। यह उनका 'साभव्व' - स्वभाव है । " १७८१. खीणकसाओ अरिहा,
कयकिच्चो अवि य जीयमणुयत्ती । पडिसेबंतो वि अओ,
अवोसवं होइ तं पूयं ॥ अर्हत् क्षीणकषाय होते हैं। वे कृतकृत्य और जीतकल्प का अनुवर्तन करते हैं। वे पूजा का सेवन करते भी अदोषी होते हैं।
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१७८२. साहम्मिओ न सत्था, तस्स कयं तेण कप्पइ जईणं । जं पुण पडिमाण कयं तस्स कहा का अजीवत्ता ॥ तीर्थकर किसी के साधर्मिक नहीं होते। इसलिए उनके लिए कृत मुनियों के लिए कल्पता है। तो फिर अजीव प्रतिमाओं के लिए किए हुए की बात ही क्या ?
१. (क) 'दाणि' - वाक्यालंकार में प्रयुक्त निपात ।
(ख) साभव्व-त्ति स्वो भावः स्वभावः....तस्स भावः स्वाभाव्यं ।
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बृहत्कल्पभाष्यम्
१७८३. ठाहमठाई ओसरण मंडवा संजय देसे वा । पेढी भूमीकम्मे, निसेवतो अणुमई दोसा ॥ समवसरण में अनेक मुनि आयेंगे-यह सोचकर श्रावक स्थायी अथवा अस्थायी मंडप बनाते हैं। वे भी दो प्रकार के होते हैं-संयतों के लिए निर्मित तथा देशतः निर्मित - साधुओं के लिए तथा स्वयं के लिए इसी प्रकार बैठने के लिए पेढीपीठिका का निर्माण, भूमीकर्म - ऊबड़-खंड भूमी को समकरना - इन सबका सेवन करने से अनुमति का दोष लगता है। ये सदोष हैं।
१७८४. ठवियग- संछोभादी, दुसोहया होंति उग्गमे दोसा । दट्टु, बट्टु इयरे सेहा तहिं गच्छे ॥
वंदिज्जं
'संछोभ' आदि ऐसे कुल जिनमें अनेषणीय भक्त पान की आशंका नहीं की जा जाती थी, वे कुल संयतों के लिए भक्तपान स्थापित कर देते थे । उद्गम दोष वहां दुःशोध्य होते थे । पार्श्वस्थ आदि मुनियों की पूजा- वंदना करते हुए लोगों को देखकर शैक्ष मुनि उन पार्श्वस्थ मुनियों के पास जाने के इच्छुक हो जाते हैं।
१७८५. इत्थी विउव्वियाओ, भुत्ता ऽभुत्ताण दट्टु दोसाउ !
एमेव नादइज्जा, सविन्धमा नच्चिय-पगीया ॥ वस्त्र, अलंकार आदि से विभूषित स्त्रियों को देखकर मुक्त- अमुक्त मुनियों में दोष उद्भूत हो सकते हैं। इसी प्रकार नाटकीय-नाट्यस्त्रियों को सविभ्रम और नृत्य करते हुए तथा गीत गाते हुए देखकर सुनकर भुक्त अमुक्त आदि में उत्पन्न दोष होते हैं।
१७८६. थी - पुरिसाण उ फासे, गुरुगा लहुगा सई य संघट्टे । आया-संगमदोसा, ओभावण पच्छकम्मादी ॥ समवसरण में स्त्रियों का स्पर्श होने पर गुरुमास का और पुरुषों का स्पर्श होने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। स्मृति और संघट्टन होने पर भुक्तभोगियों के कौतुक होता है। इससे आत्मविराधना और संयमविराधना होती है संघटन आदि से मुनियों की अपभ्राजना और पश्चात्कर्म होता है।
१७८७.लूया कोलिगजालग, कोत्थलकारीय उवरि गेहे य । साडितमसार्दिते, लहुगा गुरुगा अभत्तीए ॥ चैत्य का प्रमार्जन न करने पर प्रतिमाओं पर ये हो सकते हैं- मकड़ी, मकड़ी के जाल, भ्रमरी के घर आदि। इनको हटाने पर चार लघुमास का प्रायश्चित्त आता है और हटाने (ग) उदए जस्स सुराऽसुर-नरवइनिवहेहिं पूइओ लोए । तं तित्थयरं नामं, तस्स विवागो हु केवलिणो ॥
(बृहत्कर्म. वि. गा. १४९)
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