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पहला उद्देशक =
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१७६८.चोअग जिणकालम्मि,
१७७३.चेइय आहाकम्मं, उग्गमदोसा य सेह इत्थीओ। किह परिहरणा जहेव अणुजाणे। नाडग संफासण तंतु खुड निद्धम्मकज्जा य॥ अइगमणम्मि य पुच्छा,
उन उत्सवों में जाने पर जो दोष होते हैं, वे ये हैं-चैत्यों निक्कारण कारणे लहुगा॥ के स्वरूप का वर्णन आधाकर्म, उद्गम आदि दोष, शैक्षों का जिज्ञासु पूछता है यदि सौ साधुओं वाले गच्छों में पार्श्वस्थों के पास गमन, स्त्रीदर्शन से समुत्थ दोष, नाटक आधाकर्म आदि दोष होते हैं तो फिर तीर्थंकरों के समय में तथा संस्पर्शन से उत्थित दोष, तन्तु-कोलिक-जाल संबंधी हजारों साधु वाले गच्छों में आधाकर्म आदि दोषों का दोष, क्षुल्ल के दर्शन से होने वाले दोष, निर्धर्मा-लिंगियों के परिहरण कैसे होता था? आचार्य कहते हैं-जैसे अनुयान- कार्यों से उत्थित दोष। (यह द्वारगाथा है। विवरण आगे की रथयात्रा में आज भी इन दोषों का परिहार किया जाता है। गाथाओं में।) शिष्य पूछता है क्या रथयात्रा में प्रवेश करना चाहिए या १७७४.साहम्मियाण अट्ठा, चउब्विहे लिंगओ जह कुटुंबी। नहीं? आचार्य कहते हैं-यदि बिना प्रयोजन अतिगमन-प्रवेश
मंगल-सासय-भत्तीइ जं कयं तत्थ आदेसो॥ करता है तो चतुर्लघु का प्रायश्चित्त आता है और प्रयोजनवश चैत्य चार प्रकार के हैं-साधर्मिकचैत्य, मंगलचैत्य, प्रवेश न करने पर भी चतुर्लघु का प्रायश्चित्त है।
शाश्वतचैत्य और भक्तिचैत्य। साधर्मिकों के लिए निर्मितचैत्य १७६९.ण्हाणा-ऽणुजाणमाइसु,
साधर्मिकचैत्य कहलाता है। साधर्मिक के दो प्रकार हैं-लिंग जतंति जह संपयं समोसरिया।। से तथा प्रवचन से। यहां लिंग से साधर्मिक का ग्रहण किया सतसो सहस्ससो वा,
गया है। वह जैसे कुटुम्बी। कुटुम्बी अर्थात् अत्यधिक तह जिणकाले विसोहिंसु॥ परिचारकों से परिवृत तथा लिंगधारी। घरों में मंगल के स्नात्रपर्व, रथयात्रा आदि के समय आज भी सैकड़ों, निमित्त निर्मित चैत्य-मंगलचैत्य होता है। देवलोक आदि में हजारों साधु एकत्रित होते हैं और वे आधाकर्म आदि दोषों होने वाला शाश्वत चैत्य तथा भक्ति के लिए निर्मित चैत्य का शोधन करते हैं, वैसे ही तीर्थंकरों के समय में भी मुनि भक्तिचैत्य कहलाता है। यहां इसी का आदेश-अधिकार है, उन दोषों का शोधन करते थे।
क्योंकि इसीमें अनुयान आदि महोत्सव संभव होते हैं। १७७०.पच्चक्खेण पराक्ख, साहिज्जइ नेव एस हीणुवमा। १७७५.वारत्तगस्स पुत्तो, पडिमं कासी य चेइयहरम्मि।
जं पुरिसजुगे तइए, बोच्छिन्नो सिद्धिमग्गो उ॥ तत्थ य थली अहेसी, साहम्मियचेइयं तं तु॥ प्रत्यक्ष उपमान वस्तु के द्वारा परोक्ष उपमेय वस्तु को वारत्तपुर में अभयसेन वारत्त नाम का महर्षि रहता था। सिद्ध (समर्थन) किया जाता है। यह हीन उपमा नहीं है। तीन उसके पुत्र ने पितृभक्ति से प्रभावित होकर एक चैत्यगृह पुरुष युगों-महावीर, सुधर्मा और जम्बू-तक सिद्धिमार्गगमन बनवाया। उसमें रजोहरण, मुखवस्त्रिका और पात्र सहित होता रहा। तदनन्तर मोक्षमार्ग व्यवच्छिन्न हो गया।
पिता की मूर्ति स्थापित की और वहां एक स्थली-सत्रशाला १७७१.आणाइणो य दोसा, विराहणा होइ संजमा-ऽयाए। प्रवर्तित की। वह साधर्मिक चैत्य था।'
___ एवं ता वच्चंते, दोसा पत्ते अणेगविहा॥ १७७६.अरहंतपइट्ठाए, महुरानयरीए मंगलाई तु। निष्कारण अनुयान अर्थात् रथयात्रा में जाने से आज्ञाभंग गेहेसु चच्चरेसु य, छन्नउईगामअ सु॥ आदि दोष तथा आत्मविराधना और संयमविराधना-दोनों होते मथुरा नगरी में, नए घर के निर्माण में पहले अर्हत् की हैं। इस प्रकार मार्ग में जाते हुए भी अनेक दोष प्राप्त होते हैं। प्रतिमा का प्रतिष्ठापन किया जाता है। यह मंगल के निमित्त १७७२.महिमाउस्सुयभूए, रीयादी न विसोहए। होता है, अन्यथा वह घर गिर जाता है-ऐसी किंवदन्ती थी।
तत्थ आया य काया य, न सुत्तं नेव पेहणा॥ इसलिए नगरी के घरों में तथा चौराहों पर प्रतिमा की भगवत् महिमा को देखने की उत्सुकता के कारण ईर्या- प्रतिष्ठापना होती थी। मथुरा नगरी से प्रतिबद्ध ९६ ग्रामार्ध समिति आदि का पूरा शोधन नहीं होता। इससे आत्म- थे। (उत्तरापथ में ग्रामार्ध का अर्थ है-ग्राम। यह वहीं की संज्ञा विराधना और शरीरविराधना होती है। त्वरा के कारण वह न थी।)२ सूत्र का परावर्तन कर सकता है और न प्रतिलेखना ही कर १७७७.निइयाइं सुरलोए, भत्तिकयाइं तु भरहमाईहिं। सकता है।
निस्सा-ऽनिस्सकयाई, जहिं आएसो चयसु निस्सं। १. आवश्यक, योगसंग्रह नियुक्ति गा. १३०३।
२. इहोत्तरापथानां ग्रामस्य ग्रामार्द्ध इति संज्ञा। (बृ. पृ. ५२४)
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