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________________ बृहत्कल्पभाष्यम् दोनों-रसिनी और भरण शुद्ध हों, परंतु श्रमण के १७६५.तत पाइयं वियं पि य, वत्थं एक्केक्कगस्स अट्ठाए। लिए उत्सिक्त हों, तो लघुमास का प्रायश्चित्त है। मुनि के पाउन्भिन्नं निकोरियं च जं जत्थ वा कमइ॥ लिए भरण, प्रासुक होने पर भी, उसे आधाकर्म मानना उपधि विषयक विधिचाहिए। वस्त्र के तीन घटक होते हैं ताना (तत), बाना (वितत), १७६०.तिन्नेव य चउगुरुगा, दो लहुगा गुरुग अंतिमो सुद्धो। और पाई (पायित) वस्त्र एक-एक के लिए होता है। यहों ___ एमेव य भरणे वी, एक्केक्कीए उ रसिणीए॥ चतुर्भंगी की गई है आधाकर्म, स्वगृहमिश्र तथा पाषंडमिश्र-इन तीनों में १. संयत के लिए तत, वितत और पायित। प्रत्येक के चार गुरुमास तथा यावदर्थिक और क्रीतकृत इन २. संयत के लिए तत, पायित और स्वयं के लिए दो में प्रत्येक के चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। वितत। अंतिम अर्थात् आत्मार्थकृत शुद्ध है। इस प्रकार एक-एक ३. संयत के लिए तत, वितत और स्वयं के लिए रसिनी विषयक तथा भरण में भी ज्ञातव्य है। पायित। १७६१.संजयकडे य देसे, अप्फासुग फासुगे य भरिए अ। ४. संयत के लिए तत, स्वयं के लिए वितत और अत्तकडे वि य ठविए, लहगो आणाइणो चेव॥ पायित। केवल संयतों के किया गया आधाकर्म होता है। देशकृत इसी प्रकार स्वयं के लिए तत के भी चार भंग होते अर्थात् संयत और आत्मार्थकृत तथा अप्रासुक या प्रासुक से हैं। दोनों के आठ भंग हए। आठवां भंग शुद्ध है क्योंकि भरण भी आधाकर्म है। आत्मार्थकृत परन्तु श्रमण के लिए तीनों (तत, वितत और पायित) स्वयं के लिए हैं, इसलिए स्थापित, वह भी ग्रहण करने योग्य नहीं है। यदि लिया जाता पात्र विषयक दो घटक हैं-उद्भिन्न और उत्कीर्ण। इसके है तो लघुमास का प्रायश्चित्त तथा आज्ञा आदि के भंग का चार भंग ये हैं-(१) संयत के लिए उद्भिन्न और उत्कीर्ण दोष आता है। (२) संयत के लिए उद्भिन्न और आत्मार्थ उत्कीर्ण (३) १७६२.देसकडा मज्झपदा, आदिपदं अंतिमं चं पत्तेयं। आत्मार्थ उद्भिन्न संयतार्थ उत्कीर्ण (४) दोनों आत्मार्थ। यह उग्गमकोडी व भवे, विसोहिकोडी व जो देसो॥ ___भंग शुद्ध है। 'यद् वा क्रमते'.....क्रीतकृत, स्थापित आदि जो मध्यपद स्वगृहमिश्र, पाषंडमिश्र, यावदर्थिकमिश्र, वस्त्र या पात्र जहां जो प्रासंगिक हो वहां उसका सम्यग क्रीतकृत, पूतिकर्म हैं, वे सारे देशकृत हैं। जो आदिपद योजन करे। यहां तनन, वितनन अविशोधिकोटि के तथा अर्थात आधाकर्म है तथा जो अंतिमपद अर्थात् आत्मार्थकृत पावन विशोधिकोटि का है-यह आचार्य का मत है। है-ये प्रत्येक एकपक्षविषयक हैं। जो देशविषयक है-स्वगृह- जिज्ञासु कहता है-तनन और वितनन विशोधिकोटि के हैं, मिश्र आदि दोष वह उद्गमकोटि होता है अथवा विशोधि- पावन अविशोधिकोटि में हैं, क्योंकि वह कन्द आदि कोटि होता है। जीवोपघातनिष्पन्न होता है। सूरी कहते हैं-हम आधाकर्म में १७६३.जं जीवजुयं भरणं, तदफासुं फासुयं तु तदभावा। जीवोपघात ही मुख्य नहीं मानते, वहां मुख्यता है श्रमण के तं पि य ह होइ कम्म, न केवलं जीवघाएण॥ लिए बनाना। जो जीवयुक्त भरण है वह अप्रासुक है जो जीवरहित भरण १७६६.अत्तट्ठियतंतूहिं, समणट्ठ ततो उ पाइय वुतो अ। है वह प्रासुक है। निर्जीव भरण भी यदि निश्चितरूप से किं सो न होइ कम्म, फासूण विपज्जिओ जो उ॥ संयतार्थ किया जाता है तो वह भी आधाकर्म है, केवल १७६७.जइ पज्जणं तु कम्म, इतरमकम्मं स कप्पऊ धोओ। जीवघात से निष्पन्न ही आधाकर्म नहीं होता। अह धोओ विन कप्पइ, तणणं विणणं च तो कम्म। १७६४.समणे घर पासंडे, जावंतिय अत्तणो य मुत्तूणं। अपने लिए निष्पादित तंतुओं से श्रमण के लिए जो वस्त्र छट्ठो नत्थि विकप्पो, उस्सिंचणमो जयट्ठाए॥ तत वितत-व्यूत है तथा प्रासुक खलिका द्रव्य के संभार से सौवीरिणी से कांजी को बाहर निकालना उत्सिक्त कहलाता पायित है, वह क्या आधाकर्म नहीं होता? है। उसके पांच प्रकार हैं-१. श्रमणार्थ, २. स्वगृहयतिमिश्र, यदि पायन ही आधाकर्म है और इतर-तनन, वितनन ३. यावदर्थिकमिश्र, ४. पाषंडिमिश्र ५. आत्मार्थकृत। इन पांचों आधाकर्म नहीं है तो उस वस्त्र को धोना तो आपके कथन से के अतिरिक्त छठा विकल्प नहीं है। गृहस्थ ने जो स्वयं के लिए कल्पता है? धोने पर भी वह वस्त्र नहीं कल्पता। इसका उत्सिंचन किया है, वही लिया जा सकता है। तात्पर्यार्थ है कि तनन और वितनन भी आधाकर्म है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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