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पहला उद्देशक
पानक की याचना में आधाकर्म की उत्पत्ति हो सकती है। इसी प्रकार पूतिकर्म, मिश्रजात, कृत, भरित, उत्सिक्त आदि होते हैं। यह द्वारगाथा है। व्याख्या आगे। १७५०.अन्नन्न दवोभासण, सदेसा पुन्न बेइ घरसामी।
कल्लं ठवेहि अन्नं, महल्ल सोवीरिणिं गेहे ॥ कोई गृहपति अन्यान्य साधु संघाटकों को द्रव-पानक की अप्राप्ति विषयक बातचीत करते हुए देखकर, पहले आने वाले मुनि पानक ले गए हैं, ऐसा सुनकर मुनि कहता है- गृहस्वामिनी! तुमको पुण्य होगा यदि तुम पानक दोगी। तब गृहपति गृहस्वामिनी को कहता है कल तुम अत्यधिक कांजी बनाकर रखना जिससे सभी साधुओं को पानक दिया जा सके। १७५१.मा काहिसि पडिसिद्धो, जइ बूया कुणसु दाणमन्नेसिं।
ते वुद्दिविवज्जी, न यावि निच्चं अहिवडंति॥ मुनि कहता है-साधु के लिए बनाया हुआ हमें ग्रहण करना नहीं कल्पता। ऐसा प्रतिषेध करने पर गृहस्वामी अपनी पत्नी को कहता है ये मुनि नहीं लेते, दूसरे साधुओं का दान दे देना। तब मुनि उनसे कहे-वे मुनि भी उद्दिष्ट का विवर्जन करने वाले हैं। वे भी प्रतिदिन पानक के लिए नहीं आते।' १७५२.अम्ह वि होहिइ कज्ज, घिच्छंति बहु य अन्नपासंडा।
पत्तेयं पडिसेहो, साहारे होइ जयणा उ॥ इस प्रकार कहने पर गृहपति यह कहे-कांजिक हमारे काम भी आ जायेगी। अथवा अन्य पाषंडी भी उसको ले लेंगे। वहां साधारणरूप से यह यतना करनी चाहिए हमें वह लेना नहीं कल्पता। प्रत्येक निग्रंथ के लिए बना पानक, साधु को लेना नहीं कल्पता। १७५३.आहाकम्मिय सघर
पासंडमीसए जाव कीयपूई अत्तकडे। एक्केक्कम्मि य सत्त उ,
कए य काराविए चेव॥ इतना कहने पर भी कोई गृहपति सात प्रकार की सौवीरिणी की स्थापना कर दे, जैसे-(१) आधाकर्मिका (२) अपने लिए तथा साधु के लिए कृत (३) अपने लिए तथा पाषंडियों के लिए कृत (४) अन्य गृहस्थों तथा पाषंडियों के लिए कृत (५) क्रीतकृत (६) पूर्तिकर्मिका (७) आत्मकृतअपने लिए कृत। प्रत्येक के सात-सात भरण-भेद होते हैं। प्रत्येक के कृत और कारापित-ये दो-दो भेद और होते हैं। इस प्रकार सारे भेद ९८ होते हैं-(७४७४२)। १. दातुरुन्नतचित्तस्य, गुणयुक्तस्य चार्थिनः। दुर्लभः खलु संयोगः, सुबीज-क्षेत्रयोरिव ।। (वृ. पृ. ५१६)
१७५४.कम्म घरे पासंडे, जावंतिय कीय-पूइ-अत्तकडे।
भरणं सत्तविकप्पं, एक्केक्कीए उ रसिणीए॥ प्रत्येक रसीनी-सौवीरिणी के ये सात-सात भेद होते हैं(१) आधाकर्मिक
(५) क्रीतकृत (२) स्वगृह-यतिमिश्र (६) पूतिकर्मिक (३) स्वगृह-पाषंडीमिश्र (७) आत्मार्थकृत।
(४) यावदर्थिकमिश्र १७५५.सत्त त्ति नवरि नेम्म, उग्गमदोसा हवंति अन्ने वि।
संजोगा कायव्वा, सत्तहि भरणेहिं रसिणीणं ।। यह सात की संख्या नेम्म-उपलक्षण से कही गई है। औद्देशिक आदि दोष अन्य भी हो सकते हैं। उनके संयोगविकल्प करने चाहिए इन सातों रसीनियों-सौवीरिणियों के साथ भंग करने चाहिए। १७५६.जावइया रसिणीओ, तावइया चेव होति भरणा वि।
___ अउणापन्नं भेया, सयग्गसो यावि णेयव्वा॥
जितनी रसीनियां होती हैं उतनी ही संख्या में भरण होते हैं। इस प्रकार ७४७-४९ भेद-विकल्प हुए। इसी प्रकार सैकड़ों भेद हो सकते हैं। १७५७.मूलभरणं तु बीया, तहिं छम्मासा न कप्पए जाव।
तिन्नि दिणा कड्डियए, चाउलउदए तहाऽऽयामे। मूलभरण का अर्थ है-प्रासुक अम्लिनी-सौवीरिणी में राई आदि बीज मुनि के लिए प्रक्षिप्त करना, वह छह महीनों तक ग्रहण करना नहीं कल्पता। उसमें से राई आदि निकाल कर तंदुल धावन और अवस्रावण प्रक्षिप्त करने पर वह पूतिकर्म होने के कारण तीन दिन तक नहीं कल्पता। १७५८.एमेव सघर-पासंडमीस जाव कीय-पूइ-अत्तकडे।
कय कीयकडे ठविए, तहेव वत्थाइणं गहणं॥ इसी प्रकार आधाकर्मिक की भांति स्वगृहमिश्र, पाषंडमिश्र, यावदर्थिकमिश्र, क्रीतकृत, पूर्तिकर्म तथा आत्मार्थकृत
भरण को जानना चाहिए। इसी प्रकार श्रमण के लिए निष्पादित वस्त्र, क्रीतकृत तथा स्थापित वस्त्र के ग्रहण संबंधी नियम पानक की तरह जानना चाहिए। १७५९.जेण असुद्धा रसिणी,
भरणं वुभयं व तत्थ जाऽऽरुवणा। सुद्धुभय लहूसित्ते,
कम्ममजीवे वि मुणिभरणे॥ जहां रसिनी अशुद्ध हो अथवा भरण अशुद्ध हो अथवा दोनों अशुद्ध हो वहां आरोपणा प्रायश्चित्त वक्तव्य है। यदि
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