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________________ १८० वारिखल परिव्राजकों के बारह मृत्तिकालेप से, वानप्रस्थ तापसों के छह मृत्तिकालेप से भाजन शोधन माना जाता है। इसलिए शिष्य ऐसा मत कहो कि पात्र का शोधन तब तक करना चाहिए जब तक कि वह निर्गन्ध न हो जाए। प्रवचन में मोक प्रतिमा का भी प्रतिपादन है। मोक पीकर भी मुनि शुचि रहता है। " १७३९. हि सोयाहं लोए अम्हं पि अलेवगं अगंधं च । मोएण वि आयमणं, दिट्ठ तह मोयपडिमाए । जैसे लोक में पृथक् पृथक् अनेक शौचसाधन प्रचलित हैं वैसे ही हमारे भी तीन कल्प कर देने पर पात्र अलेपकृत तथा अगंध हो जाता है। तथा मोकप्रतिमा में मोक से आचमन करना भी दृष्ट है। १७४०. जइ निल्लेवमगंधं, पडिकुट्टं तं कहं नु जिणकप्पे । तेसिं चेव अवयवा, रुक्खासि जिणा न कुव्वंति ॥ शिष्य कहता है- यदि निर्लेपन और अगंध शौच है तो फिर जिनकल्प में यह प्रतिकृष्ट क्यों है? आचार्य कहते हैंजिनकल्पिक मुनि रूक्ष भोजन करते हैं। उनके पुरीष (वर्चस्) के सूक्ष्म अवयव नहीं लगते। अतः वे शौच से निवृत्त होने के पश्चात् निर्लेपन नहीं करते। १७४१. थंडिल्लाण अनियमा, अभाविप इहि जुयलमुडयरे । सज्झाए पडिणीए, न ते जिणे जं अणुप्पेहे ॥ स्थविरकल्पी मुनियों के लिए निर्लेपन (शौच) अनिवार्य है क्योंकि उनकी स्थंडिल भूमियां अनियत होती हैं। अभावित- अपरिणत शिष्य शौच न करने पर विपरिणत हो जाता है तथा ऋद्धिमान् प्रव्रज्या लेने पर वह शौचकरणभावित होने के कारण शौच अवश्य करणीय हो जाता है। तथा युगल अर्थात् बाल मुनि और वृद्ध मुनि प्रायः भिन्नवर्चस्क होते हैं, अतः शीच आवश्यक है। 'उड्डयर' अर्थात् भोजन करते हुए संज्ञा का उत्सर्जन करने वाला चपलता से हाथ आदि को भी संज्ञा से लिप्त कर देता है। स्थविरकल्पिकों को निर्लेपन किए बिना स्वाध्याय वाणी से करना नहीं कल्पता । निर्लेपन न करने पर प्रत्यनीक व्यक्ति उहाह कर सकता है। जिनकल्पिकों के ये दोष नहीं होते। वे स्वाध्याय मन से ही कर लेते हैं, वाणी से नहीं । स्थविरकल्पी मन से स्वाध्याय करने पर लंबे काल में भी सूत्र और अर्थ से परिचित नहीं हो सकते। १७४२. एमेव अप्पलेवं सामासेउं जिणा न धोयंति । तंपियन निरावयवं अहाठिईए उ सुज्झति ॥ इसी प्रकार जिनकल्पिक मुनि अलेपकृत भाजन का Jain Education International बृहत्कल्पभाष्यम सम्यक संलेखन करते हैं, धोते नहीं। वह पात्र निरावयव नहीं होता फिर भी यथास्थिति अपने कल्प का अनुपालन करने से वे शुद्ध होते हैं। १७४३. मतो संस, जं इच्छसि धोवणं दिणे बिहए। इत्थ वि सुणसु अपंडिय!, जहा तयं निच्छए तुच्छं ॥ पात्र को संसृष्ट मानते हुए भी यदि दूसरे दिन उसके कल्प करने की इच्छा रखते हो तो हे अपंडित शिष्य ! सुनो, तुम्हारा कथन निश्चय अर्थात् परमार्थरूप से तुच्छ है, असारभूत है। १७४४. सव्वं पिय संसद्वं, नत्थि असंसट्टिएल्लयं किंचि । सव्वं पिय लेवकर्ड, पाणगजाए कई सोही ॥ यदि गंधमात्र से भक्त उच्छिष्ट होता है तो संसार में सारा संसृष्ट- उच्छिष्ट है। यहां किंचित्मात्र भी असंसृष्ट नहीं है। इस प्रकार सारा लेपकृत है। वह पानकजात से शुद्ध कैसे होगा ? १७४५. खीरं वच्छ, उदगं पि य मच्छ- कच्छभुच्छि । चंदो राहुच्छिद्रो, पुष्पाणि य महुअरगणेहिं । १७४६. रंधंतीओ बोट्टिंति वंजणे खल-गुले य तक्कारी । संसमुहा य दवं, पियंति जइणो कहं सुज्झे ॥ दूध बछड़े द्वारा उच्छिष्ट है। पानी भी मत्स्य कच्छप द्वारा उच्छिष्ट है चन्द्रमा राहु द्वारा उच्छिष्ट है तथा फूल भ्रमरों द्वारा उच्छिष्ट है रसोई बनाने वाली स्त्रियां शाक आदि को चखती है, खल-गुड़ आदि बनाने वाले उसको उच्छिष्ट करते हैं। मुनि उच्छिष्ट मुंह से पानी आदि पीते हैं। उस पात्र का शोधन कैसे हो सकता है ? (अतः गंधमात्र से ही पात्र उच्छिष्ट नहीं होता ।) १७४७. एक्किक्कम्मि उ ठाणे, वितह करिंतस्स मासियं लहुअं । तिगमासिय तिगपणगा, य होंति कप्पं कुणइ जत्थ ॥ एक-एक स्थान में वितथ सामाचारी का आचरण करने वाले मुनि के प्रत्येक के लघुमास का प्रायश्चित्त आता है। जहां कल्प किया जाता है वहां तीन मासिक और तीन पंचक प्रायश्चित्त आता है। १७४८. भुत्ते भुजंतम्मि य, जम्हा नियमा दवस्स उवओगो । समहियतरो पयत्तो, कायव्वो पाणए तम्हा ॥ भोजन कर लेने के पश्चात् अथवा भोजन करते समय नियमतः पानक का उपयोग होता है। इसलिए पानक को लाने का सबसे अधिक प्रयत्न किया जाता है। १७४९. पाणगजाइणियाए, आहाकम्मस्स होइ उप्पत्ती । पूती य मीसजाए कडे य भरिए य ऊसिते ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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