SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहला उद्देशक गृहस्थ के भाजन की प्रत्युपेक्षा कर, उसमें पानक लाकर शिष्य पुनः कहता है यदि पूर्व गाथोक्त दोष होते हैं तो पात्रों का कल्प करे तथा शेष द्रव से अन्य मुनियों के पात्रों अच्छा है कि पात्र को मोक से न धोया जाए। इस स्थिति में को धोकर, बचे हुए पानक को पीने के लिए काम में लिया पात्र को हाथ में ले पूरी रात खड़ा रहे अथवा पात्र को लेकर जा सकता है। यदि पानक थोड़ा प्राप्त हो तो अन्य ग्रहों से . बैठे अथवा पात्र को हाथ में रख सोए। आचार्य कहते हैंलिया जा सकता है। शिष्य! यह आवश्यक नहीं है, क्योंकि इससे दो दोष उत्पन्न १७३०.जा भुंजइ ता वेला, फिट्टइ तो खमग थेरओ वाऽऽणे। होते हैं आत्मविराधना और संयमविराधना। अथवा पात्र के तरुणो व नायसीलो, नीयल्लग-भावियादीसु॥ गिरने से वह टूट जाता है, उसकी हानि होती है। साधु जब तक आहार करे तब तक पानक की वेला बीत १७३४.निद्धमनिद्धं निद्धं, गोब्बरपुढे ठविंति पेहित्ता। जाती है अतः क्षपक अथवा स्थविर एकाकी जाकर पानक ले जइ य दवं घेत्तव्वं, बिइयदिणे धोइउं गिण्हे ।। आए। अथवा तरुण मुनि जो ज्ञातशील अर्थात् दृढ़धर्मा और लेपकृत पात्र स्निग्ध हो अथवा अस्निग्ध, उसे उपल से निर्विकार हो वह भी एकाकी अपने स्वजनों के घरों से अथवा पोंछकर, प्रत्युपेक्षित कर, रात्री में स्थापित करे। यदि दूसरे भावित आदि कुलों से पानक ले आए। दिन उस पात्र में द्रव-पानक लाना हो तो उस पात्र को धोकर १७३१.बिइयपय मोय गुरुगा, ठाण निसीयण तुयट्ट धरणं वा। उसमें पानक ग्रहण करे। गोब्बरछण ठवणा, धोवण छटे य दव्वाइं॥ १७३५.जइ ओदणो अधोए, घिप्पइ तो अवयवेहिं निसिभत्तं। अपवादपद में यदि मोक-प्रस्रवण से आचमन करते हैं तो तिन्नि य न होति कप्पा, ता धोवसु जाव निग्गंध । चार गुरुमास का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। शिष्य प्रश्न १७३६.तम्हा गुब्बरपुढे, संलीढं चेव धोविउं हिंडे। करता है-यदि मोक से आचमन करने पर दोष होता है तो इहरा भे निसिभत्तं, ओअविअं चेव गुरुमादी। रात्री में स्थान, निषीदन, शयन करते हुए क्या संसृष्ट भाजन शिष्य ने कहा यदि दूसरे दिन उस अधौतपात्र में ओदन को धारण करे? आचार्य कहते हैं-ऐसा करने पर आत्म- लिया जाता है तो उसमें लगे हुए भोजन के अवयवों के विराधना और संयमविराधना होती है। ऐसी स्थिति में पात्र कारण, उस ओदन को खाने वाले के रात्रीभोजन का दोष को उपल से पोंछकर रखे। यदि दूसरे दिन उसमें पानक लगता है। शुद्धि के लिए आप तीन कल्प की बात करते हैं, लाना हो तो पहले उसका कल्पत्रय से धोए। यदि भक्त लाना । वह पर्याप्त नहीं है, क्योंकि गंध तो मिटती नहीं अतः उस हो तो धोने की आवश्यकता नहीं है। शिष्य ने कहा-बिना पात्र को इतना धोना चाहिए कि गंध मिट जाए। इसलिए उस धोए यदि पात्र में भक्त लाया जाता है तो उस पात्र में जो द्रव्य पात्र को उपल से रगड़ कर साफ करना चाहिए। यह के सिक्थ लगे हुए हैं, वे पर्युषित होने के कारण, उनसे सस्निग्ध पात्र के लिए है। जो पात्र अस्निग्ध हो उसको रात्रीभोजन व्रत का अतिक्रमण होता है। भलीभांति चारों ओर से साफ कर, धोकर, फिर उसमें भिक्षा १७३२.वइगा अदाणे वा, दव असईए विलंबि सूरे वा। लें। अन्यथा आपके निशिभक्त का दोष लगता है। ___ जइ मोएणं धोवइ, सेहऽन्नह भिक्ख गंधाई॥ अकल्पकृतपात्र में भक्त लेने पर वह ओअविय-उच्छिष्ट हो व्रजिका-गोकुल में गए हुए अथवा मार्गगत मुनियों को जाता है। उस भक्त को गुरु आदि को देने पर महान पानक की अप्रासि होने पर अथवा सूर्य के अस्तंगतप्रायः होने आशातना होती है। पर पानक न हो तो मोक से पात्र का धावन करना चाहिए। १७३७.भण्णइ न अण्णगंधा, हणंति छटुं जहेव उग्गारा। शिष्य द्वारा यह कहने पर आचार्य कहते हैं-मोक से पात्र का तिन्नि य कप्पा नियमा, जइ वि य गंधो जहा लोए। आचमन करने पर शैक्ष के मन में अन्यथा भाव आ सकता है इस प्रकार शिष्य के कहने पर आचार्य कहते हैं-अन्न के और दूसरे दिन उस पात्र में भिक्षा लाने पर गंध के कारण गंध मात्र से छठा व्रत-रात्रीविरमणव्रत का भंग नहीं होता। प्रवचन की अवहेलना होती है। इससे श्रावक विपरिणत हो । जैसे रात्री में अन्न की डकार या उगाली आने से छठा व्रत जाते हैं। नहीं टूटता। इसलिए पात्र में यदि गंध भी आती है तो १७३३.भणइ जइ एस दोसो, नियमतः तीन बार कल्प करने की विधि है। लोक में भी तो ठाण निसियण तुअट्ट धरणं वा। पात्रों के शोधन के लिए मृत्तिका आदि का विधान है। भण्णइ तं तु न जुज्जइ, १७३८.वारिखलाणं बारस, मट्टीया छ च्च वाणपत्थाणं। दु दोस पादे अ हाणी य॥ मा एत्तिए भणाही, पडिमा भणिया पवयणम्मि।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy