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=बृहत्कल्पभाष्यम्
गच्छ बड़ा है। अनेक साधु हैं। वे भिक्षा के लिए घूमते उत्पन्न होती है। वे सोचते हैं यह प्रव्रजित मुनि बार-बार यहां हुए गोकुल में गए। वहां उन्हें प्रचुर दूध-दही की प्राप्ति हुई। आता है तो क्या यह मैथुन संबंधी दूतत्व करता है अथवा उसी प्रकार विरूपसंखडी में उन्हें अनेक प्रकार के भक्ष्य- चोरों का चर बनकर आता है अथवा यह स्वयं के लिए ही भोज्य पदार्थ प्राप्त होते हैं। उन्होंने सोचा-अन्यत्र ये द्रव्य इस प्रकार कर रहा है। इस आशंका से गृहस्थ उसको दुर्लभ हैं। सभी साधारण मनियों के लिए ये द्रव्य उपष्टंभ पकडते हैं. उसका आकर्षण आदि कारक हैं, ऐसा सोचकर उन्होंने अपने सभी पात्र उन भोज्य १७२५.गिण्हति सिज्झियाओ, छिदं जाउग सवत्तिणीओअ। द्रव्यों से भर लिए। उपाश्रय में आए। पानक के बिना आहार
सुत्तत्थे परिहाणी, निग्गमणे सोहिवुही य॥ कैसे किया जाए। उनके पास तक्र, इक्षु आदि रस हैं। आहार कांजिक देने वाली स्त्री अथवा गृहस्वामिनी के ये सभी करते समय गले में कुछ अटक जाने पर वे बीच में तक्र, लोग छिद्र देखते हैं-पड़ोसिन, जेठ-देवर, सौत आदि। वे पति इक्षुरस आदि पी सकते हैं।
के पास शिकायत करते हैं। इससे हानि होती है। तथा सूत्रार्थ १७२१.मंडलितक्की खमए, गुरुभाणेणं व आणयंति दवं। की परिहानि होती है। बार-बार निर्गमन करने पर प्रायश्चित्त
अपरीभोगऽतिरित्ते, लहुओऽणाजीविभाणे य॥ की वृद्धि होती है। जो क्षपक मंडली का उपजीवक है, उसके भाजन में (ये सारे दोष होते हैं। अतः एकाकी मुनि को बार-बार अथवा गुरु के भाजन में द्रव अर्थात् पानक ले आते हैं। यदि नहीं जाना चाहिए।) अपरिभोग्य भाजनों में अथवा अतिरिक्त भाजन में अथवा १७२६.संघाडएण एगो, खमए बिइयपय वुड्डमाइण्णे। मंडली के अनुपजीवी क्षपक के भाजन में पानक लाते हैं तो
पुन्बुद्धि (दि)एण करणं, तस्स व असई य उस्सित्ते॥ लघुमास का प्रायश्चित्त आता है।
अतः संघाटक के साथ भावितकुलों में जाए। द्वितीयपद १७२२.भणइ जइ एस दोसो, तो आइमकप्पमाण संलिहिउं। अर्थात् अपवादरूप में क्षपक अथवा वृद्ध मुनि एकाकी भी
अन्नेसि तगं दाउं, तो गच्छइ बिइय-तइयाणं॥ आकीर्ण कुलों में जा सकता है। जो पानक पहले ही उवृत्त दूसरा कहता है-यदि यह दोष है तो पात्र का अंगुलियों पृथक् रखा हुआ हो वह ग्रहण करे, उससे पात्र का कल्प से संलेखन कर फिर पात्रों के प्रथम कल्प करने योग्य पानक करे। यदि पहले पृथक् निकाला हुआ न हो तो उसका लाए और उसे अन्यान्य साधुओं को देकर स्वयं भी अपने उत्सेचन करा दे। पात्र को साफ करे। फिर पात्र के दूसरे-तीसरे कल्प के लिए १७२७.भावितकुलेसु धोवित्तु भायणे आणयंति सेसट्ठा। पानक लाने के लिए दूसरी-तीसरी बार जाए और दूसरी बार तविहकुलाण असई, अपरीभोगादिसु जयंति॥ उतना ही पानक लाए जिससे पात्र का दूसरी बार कल्प हो भावितकुलों से पानक लाकर अपने पात्रों को धोकर शेष सके और तीसरी बार भी उतना ही पानक लाए, जिससे मुनियों के लिए भी पानक भावितकुलों से ले आए। यदि उस तीसरी बार का कल्प हो सके।
प्रकार के कुल न हों तो अपरिभोग्य कुलों से वह पानक लाने (आचार्य कहते हैं-इस प्रकार करने से स्वयं, पर तथा का प्रयत्न करते हैं। प्रवचन-तीनों परित्यक्त हो जाते हैं। जैसे-)
१७२८.ओअत्तम्मि वहो, पाणाणं तेण पुव्वउस्सित्तं। १७२३.संदसणेण बहुसो, संलाव-ऽणुराग-केलि आउभया। असती वुस्सिंचणिए, जं पेक्खइ वा असंसत्तं॥
देंती णु कंजियं गुं, जइस्स इट्ठो त्ति य भणंति॥ जो सौवीर उत्पाद्यमान हो, उसकी गंध से अनेक प्राणी एक ही घर में बार-बार आते-जाते मुनि संदर्शन से वहां एकत्रित हो जाते हैं। उसको ग्रहण करने पर उन प्राणियों गृहस्वामिनी के साथ संलाप, अनुराग, क्रीड़ाभाव-परिहास के बाधा होती है, इसलिए पूर्वोत्सित पानक ही लेना चाहिए। आदि आत्मोभयसमुत्थ दोष हो सकते हैं। देखने वालों को यदि पूर्वोत्सित न मिले तो उत्सिञ्चनिका से यतनापूर्वक यह संदेह होता है कि क्या इस मुनि को पानक देने वाली उत्सिंचित कराकर यतनापूर्वक लिया जा सकता है। यदि स्त्री इष्ट है अथवा कांजी इष्ट है?
उत्सिञ्चनिका न हो तो पार्यों को जीवों से असंसक्त १७२४.आयपरोभयदोसा, चउत्थ-तेणट्ठसंकणा णीए। देखकर, प्रातिहारिक गृहस्थ भाजन में पानक लेकर पात्र का ___ दोच्चं णु चारिओ j, करेइ आयट्ठ गहणाई॥ कल्प करे।
स्व और पर से होने वाले दोष ये हैं। गृहस्वामिनी के १७२९.गिहिसंति भाण पेहिय, कयकप्पा सेसगं दवं घेत्तुं। निजकों के मन में चौथे व्रत संबंधी तथा स्तैन्य संबंधी शंका धोअण-पियणस्सट्ठा, अह थोवं गिण्हए अन्नं॥ Jain Education International
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