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________________ पहला उद्देशक १७७ १७१०.घयघट्टो पुण विगई, वीसदण मो य केइ इच्छंति। उतरते हुए साधु ने देख लिया। वह ब्राह्मण गांव में गया और तेल्ल-गुलाण अविगई, सूमालिय-खंडमाईणि॥ लोगों को कहा कि साधु आहार कर रहे हैं।) १७११.महुणो मयणमविगई, खोलो मज्जस्स पोग्गले पिउडं। साधु ब्राह्मण को वृक्ष से उतरते देख और उसके __रसओ पुण तदवयवो, सो पुण नियमा भवे विगई। अभिप्राय को भांप कर सावचेत हो गए। उन्होंने पात्र को दही का अवयव मंथु विकृति नहीं है। तक्र विकृति नहीं पोंछकर, धोकर, पूर्णरूप से साफ कर रख दिया। ग्रामीण है। दूध अवयवरहित होता है। नवनीत और अवगाहिम- लोग वहां आए और पात्र को देखने का आग्रह किया। तब पक्वान्न अवयवरहित होते हैं। घृतघट्ट-घी का किट्ट विकृति मुनि ने उन निःशील और निव्रती ग्रामीणों को पात्र दिखाते है। विस्पंदन-आधे जले घृत को कई आचार्य विकृति मानते हुए कहा-यह देखो मेरा पात्र। इससे तुम्हारा कुतूहल शांत हैं। तैल और गुड़ से निष्पन्न सुकुमारिका' खंड आदि हो जाएगा। पात्र को देखकर ग्रामीणों ने उस ब्राह्मण की अविकृति है। मधु का अवयव मदन अविकृति है। मद्य का भर्त्सना की। साधु की कीर्ति और यश वृद्धिंगत हुआ। पात्र में खोल अर्थात् किट्ट विशेष तथा मांस का पिटक-उज्झ भोजन करने के कारण अन्यान्य दोष आच्छादित हो गए। अथवा अस्थि-ये भी विकृति नहीं है। मांस का अवयव जो मुनि के कारण प्रवचन की प्रशंसा हुई। (यह गुण है अच्छे रक्षक है (वसा, मेद आदि) नियमतः विकृति है। लेपकृत पात्र का)। १७१२.अंबंबाड-कविद्वे, मुद्दीया माउलिंग कयले य। १७१७.लेवाड विगइ गोरस, कढिए पिंडरस जहन्न उब्भज्जी। खज्जूर-नालिएरे, कोले चिंचा य बोधव्वा ।। एएसिं कायव्वं, अकरणे गुरुगा य आणाई॥ आम्र, आम्रातक, कपित्थ, द्राक्षा, मातुलिंग-बीजपूरक, ये लेपकृत द्रव्य हैं-सभी विकृतियां, गोरस-तक्र आदि, कयल कदलीफल, खजूर, नारियल, कोल-बदरीचूर्ण, क्वथित-तीमनादि, पिंडरस-खर्जूर आदि यावत् जघन्यतः इमली ये सारे पिंडरसद्रव्य हैं। उब्भज्जि-कोद्रवआउलक, इनके लेप का कल्प करना १७१३.खज्जूर-मुद्दिया-दाडिमाण पीलुच्छु-चिंचमाईणं।। चाहिए। कल्प न करने पर चार गुरुमास का प्रायश्चित्त तथा पिंडरस न विगईओ, नियमा पुण होति लेवाडा॥ आज्ञाभंग आदि दोष तथा संयमविराधना और आत्मविराधना खर्जूर, मुद्रिका, दाडिम, पीलु, इक्षु, इमली-इनसे का प्रसंग। संबंधित जो पिंडरस होता है, वह विकृति नहीं होती, किन्तु १७१८.संचयपसंगदोसा, निसिभत्तं लेवकुच्छणमगंधं । ये नियमतः लेपकृत हैं। दव्वविणासुहादी, अवण्ण संसज्जणाऽऽहारे॥ १७१४.कुट्टिमतलसंकासो,भिसिणीपुक्खलपलाससरिसो वा। लेपकृतपात्र का कल्प न करने पर संचयप्रसंग (सूक्ष्म ___ सामास धुवण सुक्खावणा य सुहमेरिसे होति॥ सिक्थ आदि अवयव के कारण) ये दोष होते हैं-उसको पात्र का लेप कुट्टिमतलसदृश होना चाहिए अर्थात् पात्र के रात्रीभोजन का दोष लगता है। लेप क्वथित हो जाता है, चारों ओर समरूप में लेप होना चाहिए। तथा पद्मिनी के भाजन अतीव दुर्गन्धित हो जाता है। वैसे पात्र में गृहीत द्रव्य विस्तीर्ण पत्र के सदृश होना चाहिए जिससे कि सूक्ष्म सिक्थ । का विनाश होता है और खाने से वमन आदि होते हैं, प्रवचन भी वहां टिका न रह सके। इस प्रकार के लेपकृत पात्र का का उड्डाह होता है। दुर्गन्धित आहार में पनक, कुंथु आदि समास-संलेखन, धावन तथा सुखाना ये सारी क्रियाएं प्राणी संशक्त हो जाते हैं। सुखपूर्वक की जा सकती हैं। १७१९.लेवकडे कायव्वं, परवयणे तिन्नि वार गंतव्वं । १७१५.आउत्तो सो भगवं, चोक्खं सुइयं च तं कयं पत्तं। एवं अप्पा य परो, य पवयणं होति चत्ताई। निस्सील-निव्वयाणं, पत्तस्स य दायणा भणिया। लेपकृत भाजन का कल्प करना चाहिए। शिष्य कहता १७१६.ओभामिओ उ मरुओ, पत्तो साहू जसं च कित्तिं च। है-कल्पप्रायोग्यपानक के ग्रहण के लिए तीन बार गृहपति के पच्छाइआ य दोसा, वण्णो य पभाविओ तहियं। घर में जाना चाहिए। आचार्य कहते हैं-ऐसा करने पर स्वयं, (एक मुनि ने वृक्ष के नीचे बैठकर आहार करने से पूर्व पर तथा प्रवचन-ये तीनों परित्यक्त हो जाते हैं। चारों ओर देखा। वृक्ष पर एक ब्राह्मण चढ़ा हुआ था। उसने १७२०.गोउल विरूवसंखडि, अलंभे साधारणं च सव्वेसिं। साधु को आहार करते देख लिया। उसको वृक्ष से नीचे गहियं संती य तहिं, तक्कुच्छुरसादि लग्गट्ठा॥ १. सुकुमारिका-तैल का किट्ट विशेष। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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