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बृहत्कल्पभाष्यम् गई हों उसके लिए दो आदि गोचरकाल अनुज्ञात हैं। जो १७०४.लहुया य दोसु गुरुओ, अ तइअए चउगुरू य पंचमए। तपस्वी बार-बार लाता है, खाता है उसे पुनः तपस्या करने
सेसाण मासलहुओ, जं वा आवज्जई जत्थ॥ का बल प्राप्त हो जाता है। और उसे शीतभोजन भी नहीं गौरविक और काथिक को चार लघुमास, तीसरे अर्थात् खाना पड़ता।
मायावी को गुरुमास, पांचवें लुब्धक को चार गुरुमास, शेष १७००.बहुदेवसिया भत्ता, एगदिणेणं तु जइ वि भुंजेज्जा। मुनियों को लघुमास का तथा विराधना आदि का जिसको
तह वि य चाग-तितिक्खा -एगग्ग-पभावणाईया।। जितना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उतना दिया जाता है। बेले-बेले, तेले-तेले आदि की तपस्या करने वाला मुनि १७०५.भाणस्स कप्पकरणे, अलेवडे नत्थि किंचि कायब्वं । यदि अनेक दैवसिक भक्तों (भोजन) को एक दिन में ही खा तम्हा लेवकडस्स उ, कायव्वा मग्गणा होइ॥ जाता है, फिर भी तपस्या करने के कारण त्याग, तितिक्षा, पात्र के कल्पकरण के विषय में यह विचार है कि अलेपएकाग्रता तथा प्रभावना आदि होती है। (दूसरों में तपस्या के कृत द्रव्य हो तो पात्र का कल्प नहीं किया जाता। लेपकृत प्रति श्रद्धा और तपस्वी को देखकर प्रव्रज्या लेने की भावना द्रव्य हो तो पात्र का कल्प अवश्य करना होता है, अतः उत्पन्न होती है।)
इनकी मार्गणा करनी चाहिए। १७०१.जह एस एत्थ वुड्डी, ओअरमाणस्स दसहि सपदं च। १७०६.कंजुसिण-चाउलोदे, संसट्ठा-ऽऽयाम-कट्ठमूलरसे।
सेसेसु वि जं जुज्जइ, तत्थ विवड्डी उ सोहीए। ___ कंजियकढिए लोणे, कुट्टा पिज्जा य नित्तुप्पा।। जैसे दो-तीन बार आदि गोचरी के लिए जाने पर १७०७.कजिय-उदगविलेवी, ओदण कुम्मास सत्तुए पिढे। प्रायश्चित्त की वृद्धि कही गई है और वह बढ़ते-बढ़ते दसवें
मंडग समिउस्सिन्ने, कंजियपत्ते अलेवकडे॥ स्थान पारांचिक तक पहुंच जाती है, वैसे ही शेष चतुर्थ- कांजी, उष्णोदक, चावल का धोवन, गोरस से संसृष्ट भक्तिक आदि के लिए भी होनी चाहिए, प्रायश्चित्त की वृद्धि भाजन का पानी (अवश्रावण), काष्ठमूलरस (चने, चवला होनी चाहिए।
आदि द्विदल के रस से भावित पानक), कांजी से क्वथित, १७०२.एगाणियस्स दोसा, साणे इत्थी तहेव पडिणीए। लवणयुक्त, इमली, पेय तथा अचुपड़ी रोटी आदि, कांजिक
भिक्खविसोहि महव्वय, तम्हा सबिइज्जए गमणं॥ विलेपिका, उदकविलेपिका, ओदन, कुल्माष, सक्तुक-भुंजे भिक्षा के लिए एकाकी पर्यटन करने के ये दोष हैं-कुत्ता । हुए यवों का आटा, पिष्ट-मूंग आदि का चूर्ण, समित-गेहूं काट सकता है, कोई प्रोषितभर्तृका स्त्री अथवा विधवा स्त्री का आटा, उत्स्विन्न (उंडेरक आदि), कांजिकपत्र-कांजी उपद्रव कर सकती है, प्रत्यनीक उसको उत्पीड़ित कर सकता के पानी से वाष्पित अरणिका आदि का शाक-ये सारे है, भिक्षा की पूर्ण शोधि नहीं हो सकती, महाव्रतों की अलेपकृत हैं। विराधना दो सकती है। इसलिए दो मुनियों को साथ जाना १७०८.विगई विगइअवयवा, अविगइपिंडरसएहिं जं मीसं। चाहिए।
गुल-दहि-तेल्लावयवे, विगडम्मि य सेसएसुं च॥ १७०३.गारविए काहीए, माइल्ले अलस लुद्ध निद्धम्मे। दूध, दही आदि विकृतियां, विकृतियों के अवयव से
दुल्लह अत्ताहिट्ठिय, अमणुन्ने या असंघाडो॥ मिश्रित, अविकृतिरूप पिंडरसों-खर्जूर आदि से मिश्रित ये मुनि एकाकी क्यों घूमना चाहता है? इसके कारण हैं- सारे लेपकृत हैं। गुड़-दही-तैल आदि के अवयव तथा अहंकार, कथा कहकर भिक्षा प्राप्त करना (काथिक), मायावी, विकट-मद्य के अवयव, तथा शेष अर्थात् घृत आदि के आलसी, लुब्ध, निर्धर्मा, दुर्लभभैक्षकाल में भिक्षा प्राप्त करना, अवयव इनमें कुछ विकृतियां हैं और कुछ अविकृतियां। आत्मार्थिक (अपनी लब्धि से प्राप्त आहार ही करने वाला), १७०९.दहिअवयवो उ मंथू, विगई तवं न होइ विगई उ। अमनोज्ञ होने के कारण (सबके लिए कलहकारी)।
खीरं तु निरावयवं, नवणीओगाहिमा चेव।। १. इसीलिए बेले-बेले आदि की तपस्या करने वालों के लिए दो-तीन २. वृत्तिकार ने इस प्रसंग में कालद्वार और आवश्यकद्वार का पूरा
आदि गोचरकाल अनुज्ञात हैं। नित्यभक्तिक यदि दूसरी बार गोचरी विवरण दिया है। जाता है तो लघुमास, तीन बार जाने पर गुरुमास, चार बार जाने पर ३. (१) वह जीवों की हिंसा कर सकता है। (२) कुण्टल-विण्टल आदि चतुर्लघु, पांच बार जाने पर चतुर्गुरु, छह बार जाने पर षड्लघु, सात कर सकता है। (३) घर में खुले घड़े हिरण्य आदि ले सकता है। बार जाने पर षड्गुरु, आठ बार जाने पर छेद, नौ बार जाने पर मूल, (४) स्त्री की प्रतिसेवना कर सकता है। (५) भिक्षा के साथ दस बार जाने पर अनवस्थाप्य, ग्यारह बार पर पारांचिक।
समापतित स्वर्ण आदि ले सकता है। (वृ. पृ. ५००)
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