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पहला उद्देशक
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किए जाने पर तथा अपराह्न में भोजन से निवृत्त हो जाने पर तथा मध्याह्न में साधुओं के भिक्षाचर्या के लिए निर्गत होने पर जो प्राभृतिका की जाती है वह प्रशस्त प्राभृतिका है। यह प्रशस्त इसलिए है कि इसमें श्रुतमंडली और उपधि प्रेक्षण में कोई व्याघात उत्पन्न नहीं होता। १६९०.तं वेल सारविंती, पाहुडियाकारगं च पुच्छंति।
मोत्तूण चरिम भंग, जयंति एमेव सेसेसु॥ जिस वेला में प्राभृतिका की जाती है उस वेला में उपकरणों का संगोपन किया जाता है। वे प्राभृतिकारक को पूछते हैं-तुम किस समय संमार्जन आदि करोगे? आठ विकल्पों में चरम भंग को छोड़कर शेष भंगों में यतना करनी चाहिए। १६९१.चरमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिणो निच्चं।
दक्खे य वसहिपाले, ठविंति थेरा पुणित्थीसु॥ अच्छिन्नकालिका, अनियता और अनिर्दिष्टा प्राभृतिका में आगाढ़ कारण में रहने पर चरम भंग में भी यतना हो सकती है। वह नित्य उपधि में आयुक्त सावधान रहता है। वसतिपाल के रूप में दक्ष मुनि को स्थापित करता है। यदि प्राभूतिकारक स्त्रियां हों तो वसतिपाल के रूप में स्थविरों की स्थापना की जाए। १६९२.जिणकप्पिअभिग्गहिएसणाए पंचण्हमन्नतरियाए।
गच्छे पुण सव्वाहिं, सावेक्खो जेण गच्छो उ॥ जिनकल्पिक मुनि अभिगृहीत पांच प्रकार की एषणाओं में से किसी एक एषणा से भक्त और किसी दूसरी एषणा से पानक ग्रहण करते हैं। गच्छवासी मुनि सभी प्रकार की एषणाओं से भक्तपान ले सकते हैं। क्योंकि गच्छवासी साधु सापेक्ष होते हैं। १६९३.बाले वुड्ढे सेहे, अगीयत्थे नाण-दसणप्पेही।
दुब्बलसंघयणम्मि य, गच्छि पइन्नेसणा भणिया॥ बाल, वृद्ध, शैक्ष, अगीतार्थ, ज्ञानार्थी, दर्शनार्थी, दुर्बल- संहननवाले-इन सबके अनुग्रह के लिए प्रकीर्ण-अनियत एषणा कही गई है। १६९४.तिक्खछुहाए पीडा, उड्डाह निवारणम्मि निक्किवया।
___ इय जुवल-सिक्खगेसुं, पओस भेओ य एक्कतरे॥ १६९५.सुचिरेण वि गीयत्थो,
न होहिई न वि सुयस्स आभागी। पग्गहिएसणचारी,
किमहीउ धरेउ बा अबलो॥ अभिगृहीत एषणा होने पर भक्त-पान न मिलने अथवा अपर्याप्त प्राप्त होने पर बाल, वृद्ध आदि मुनियों के तीव्र क्षुधा
के कारण पीड़ा होती है अथवा उड्डाह होता है, अन्य एषणाओं का निवारण करने पर मुनि सोचते हैं कि यहां के मुनि अकृपालु हैं, इनमें दया नहीं है-इन कारणों से बाल-वृद्ध इस युगल में अथवा शैक्ष में प्रद्वेष के कारण शरीरभेद अर्थात् मरण या चारित्रभेद हो सकता है।
अगीतार्थ व्यक्ति लंबे समय में भी गीतार्थ नहीं होगा और वह श्रुतज्ञान का ग्राहक भी नहीं होता क्योंकि उसकी एषणा अभिग्रहयुक्त होती है, उसे उपष्टंभकारक भक्तपान की उपलब्धि नहीं होती। क्या अबल-दुर्बलसंहनन वाला व्यक्ति सूत्रार्थ को धारण करने या अध्ययन करने में समर्थ हो सकता है? १६९६.पमाणे काले आवस्सए य संघाडगे य उवगरणे।
मत्तग काउस्सग्गो, जस्स य जोगो सपडिवक्खो। प्रकीर्णक एषणा की विधि
प्रमाण अर्थात् कितनी बार पिंड-पान के लिए जाना चाहिए? कौन से काल में भिक्षा करनी चाहिए? आवश्यक अर्थात् शौचक्रिया से निवृत्त होकर जाना चाहिए। अकेले अथवा संघाटक-दो मुनियों के साथ जाना चाहिए। उपकरण साथ लेकर भिक्षाचर्या के लिए जाना चाहिए। मात्रक लेकर जाना चाहिए। कायोत्सर्ग करना चाहिए। भिक्षाचर्या में सचित्त (शैक्ष आदि) अथवा अचित्त (भक्तपान) का लाभ होगा, वह भी मैं ग्रहण करूंगा इन प्रमाण आदि को सापवाद जानना चाहिए। १६९७.दोन्नि अणुन्नायाओ, तइया आवज्ज मासियं लहुयं।
गुरुगो उ चउत्थीए, चाउम्मासो पुरेकम्मे॥ चतुर्थभक्तिक मुनि के लिए दो बार गोचरचर्या करना अनुज्ञात है। तीसरी बार जाने पर लधुमास का तथा चौथी बार जाने पर गुरुमास का प्रायश्चित्त आता है। तीन-चार बार जाने पर गृहिणी पुरःकर्म आदि करती हैं तो चार लघुमास का प्रायश्चित्त विहित है। १६९८.सइमेव उ निग्गमणं,चउत्थभत्तिस्स दोन्नि वि अलद्धे।
सव्वे गोयरकाला, विगिट्ठ छट्टऽट्ठमे बि-तिहिं॥ चतुर्थभक्तिक मुनि के लिए एक बार ही निर्गमन अनुज्ञात है, अलाभ होने पर दो बार जाया जा सकता है। विकृष्टभक्तिक-दस-बारह की तपस्या करने वाले के लिए सभी गोचरकाल अनुज्ञात हैं। षष्ठभक्तिक के लिए दो गोचरकाल तथा अष्टमभक्तिक के लिए तीन गोचरकाल अनुज्ञात हैं। १६९९.संखुन्ना जेणंता, दुगाइ छट्ठादिणं तु तो कालो।
भुत्तणुभुत्ते अ बलं, जायइ न य सीयलं होइ॥ छट्ठ आदि तपस्या के कारण जिसकी आंतें संकुचित हो
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