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बृहत्कल्पभाष्यम् १६७९.एमेव य पहाणाइसु सीयलकज्जट्ठ कोइ उस्सक्के। १६८४.मासे पक्खे दसरायए य पणए अ एगदिवसे य। मंगलबुद्धी सो पुण, गएसु तहियं वसिउकामो॥
वाघाइमपाहुडिया, होइ पवाया निवाया य॥ इसी प्रकार कोई श्रावक सोचता है-वैशाख मास में यहां जो प्राभृतिका मास के अन्त में, पक्ष या दस अहोरात्र के स्नानोत्सव, रथयात्रा आदि होंगे-ऐसा सोचकर वह शीतलता अन्त में, अथवा पांच रात-दिन के अंत में अथवा एकान्तरित के प्रयोजन से स्नानोत्सव आदि के सन्निकट काल में, काल दिन में या प्रतिदिन होती है, वह छिन्नकालिका कहलाती है का अभिष्वष्कण कर, नवगृह का निर्माण करता है तो यह और जो अनिश्चित काल में होती है वह अच्छिन्नकालिका अभिष्वष्कण से प्रतीत्यकरण है। वह गृहपति मंगलबुद्धि से कहलाती है। व्याघातिम प्राभृतिका सूत्र और अर्थ की पौरुषी अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण करता है और यह सोचता है वेला में होती है। दो प्राभृतिकाएं और हैं-प्रवाता और कि नवगृह में पहले श्रमण निवास करेंगे और उनके जाने के निवाता। (इनकी व्याख्या १६८८वें श्लोक में।) पश्चात् मैं वहां निवास करूंगा।
१६८५.पुव्वण्हे अवरण्हे, सूरम्मि अणुग्गए व अत्थमिए। १६८०.सव्वम्मि उ चउलया, देसम्मी बायराए लहुओ उ। मज्झंतिए व वसही, सेसं कालं पडिक्कट्ठा।।
सव्वम्मि मासियं खलु, देसे भिन्नो य सुहुमाए॥ पूर्वाह्न अर्थात् सूर्य के उदय से पूर्व, अपराह्न अर्थात् सर्वतः बादर प्राभृतिकाओं में रहने पर चार लघुमास का सूर्यास्त होने के बाद, मध्याह्न इन कालों में जो प्राभृतिका और देशतः रहने पर मासलघु का प्रायश्चित्त आता है। सूक्ष्म की जाती है, उस वसति में रहना अनुज्ञात है, शेष वसतियो प्राभृतिका में सर्वतः रहने पर मासलघु तथा देशतः रहने पर में रहना प्रतिकुष्ट है। भिन्नमास का प्रायश्चित्त विहित है।
१६८६.पुरिसज्जाओ अमुगो, पाहुडियाकारओ उ निहिट्ठो। १६८१.संमज्जण आवरिसण, उवलेवण सुहुम दीवए चेव। सेसा उ अनिहिट्ठा, पाहुडिया होइ नायव्वा ।।
ओसक्कण अहिसक्कण, देसे सव्वे य नायव्वा॥ जिस प्राभृतिका में अमुक पुरुष प्राभृतिका कारक है-यह सूक्ष्म प्राभृतिका के पांच प्रकार ये हैं संमार्जन, आवर्षण निर्दिष्ट होता है, वह निर्दिष्टा प्राभृतिका होती है और शेष (पानी का छिटकाव करना), उवलेपन, सूक्ष्म' अर्थात् पुष्प सारी प्राभृतिकाएं अनिर्दिष्टा होती हैं। उनकी रचना करना, दीपक जलाना, मुनियों के निमित्त देशतः १६८७.काऊण मासकप्पं, वयंति जा कीरई उ मासस्स। या सर्वतः अवष्वष्कण या अभिष्वष्कण करना।
__ सा खलु निव्वाघाया, तंवेलारेण निंताणं॥ १६८२.जाव न मंडलिवेला, ताव पमज्जामो होइ ओसक्का। मासान्तिक प्राभृतिका में पहले प्रविष्ट होकर मासकल्प
उठेतु ताव पढिउं, उस्सक्कण एव सव्वत्थ।। कर प्राभृतिका करणवेला से पहले विहार कर जाते हैं, वह जब तक मंडलीवेला स्वाध्यायमंडली का काल नहीं आ प्राभृतिका निर्व्याघात कहलाती है। क्योंकि उससे सूत्रार्थ का जाता, उससे पूर्व हम वसति का प्रमार्जन कर लें, यह व्याघात नहीं होता। उसमें रहना कल्पता है। सोचकर प्रमार्जन करता है तो वह अवष्वष्कण है। अथवा वह १६८८.अवरण्हे गिम्ह करणे, पवाय सा जेण नासयइ घम्म। सोचता है ये मुनि जब पढ़कर (स्वाध्याय कर) उठ जायेंगे
पुव्वण्हे जा सिसिरे, निव्वाय निवाय सा रत्तिं॥ तब प्रमार्जन करूंगा और वह वैसे ही करता है तो वह ग्रीष्म ऋतु के अपराह्न में जिसमें उपलेपन किया जाता अभिष्वष्कण होता है। ऐसा सर्वत्र अर्थात् आवर्षण, उलेपन है, वह प्रवाता प्राभृतिका होती है। वह रात्री में ग्रीष्मआदि में जानना चाहिए।
ऋतुसंभव ताप का नाश कर देती है। शिशिर ऋतु के पूर्वाह्म १६८३.छिन्नमछिन्ना काले, पुणो य नियया य अनियया चेव। में उपलेपन करने पर निवाता प्राभृतिका रात्री में शुष्क हो
निद्दिवाऽनिद्दिट्ठा, पाहुडिया अट्ठ भंगा उ॥ जाती है। वह निवाता प्राभृतिका होती है। इनमें कारणवश सूक्ष्म प्राभृतिका के दो प्रकार हैं-छिन्नकालिका और रहना कल्पता है। अच्छिन्नकालिका। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-नियत और १६८९.पुव्वण्हे अपट्ठविए, अवरण्हे उट्ठिएसु य पसत्था। अनियत। प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-निर्दिष्ट और अनिर्दिष्ट। मज्झण्ह निग्गएसु य, मंडलिसुत-पेहऽवाघाया।। इस प्रकार प्राभृतिका के आठ भंग होते हैं।
जिस प्राभृतिका में पूर्वाह्न में स्वाध्याय की प्रस्थापना न १. सूक्ष्माणि-समयभाषया पुष्पाणि। दशवैकालिक नियुक्ति में पुष्पों के एकार्थक शब्द
पुप्फा य कुसुमा चेव, फुल्ला य कुसुमा वि य। सुमणा चेव सुहुमा य, सुहुमकाझ्या वि य॥
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