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पहला उद्देशक
घर से दौड़ा और रास्ते में अंगारों से भरे गढ़े में गिर गया। वह गृहपति दूसरे पुत्र को लेकर उस प्रदीप्त गृह से निकला । उसने देखा, एक पुत्र उस अंगारों से भरे गढ़े में गिरा पड़ा है। क्या वह गढ़े में गिरे पुत्र के सिर पर पैर रखकर उस अंगारभृत गढ़े को पार नहीं करेगा? अवश्य करेगा। १६६९.तं वा अणक्कमंतो, चयइ सुयं तं च अप्पगं चेव ।
नित्थिष्णो हु कदाई, तं पि हु तारिज्ज जो पडिओ ॥ यदि वह गर्ता में पतित पुत्र के सिर पर पैर रखकर उस गर्ता को पार नहीं करता है तो वह स्वयं का और अपने साथ वाले पुत्र का भी नाश कर डालता है। यदि वह स्वयं पुत्र के साथ निस्तीर्ण हो जाता है तो कदाचित् वह उस गढ़े में गिरे पुत्र का भी उद्धार कर सकता है।
१६७०. निरवेक्खो तइयाए, गच्छे निक्कारणम्मि तह चेव ।
बहुवक्खेवदसविहे, साविकखे निम्गमो भइओ ॥ जो मुनि निरपेक्ष अर्थात् जिनकल्पी, प्रतिमाप्रतिपन्न हैं वे तीसरे प्रहर में उपाश्रय से विहरण करते हैं। गच्छवासी मुनि भी, कोई प्रयोजन न होने पर तीसरे प्रहर में ही विहार करते हैं। यदि गच्छ में दस प्रकार के वैयावृत्त्य में बहुत विशेष होता हो तो सापेक्ष अर्थात् गच्छवासी मुनि के निर्गमन की भजना है अर्थात् वह पहले दूसरे अथवा चौथे प्रहर में भी विहार कर सकता है।
१६७१. अतरंत - बाल - वुड्ढे,
तवस्सि आएसमाइकज्जेसु । बहुसो वि होज्ज विसणं, कुलाइकज्जेसु य विभासा ॥ निरपेक्ष मुनि तीसरे प्रहर में भिक्षाटन कर, भोजन ग्रहण कर खाकर आवश्यक अर्थात् कायिकी संज्ञा से निवृत्त होकर जिस प्रहर में गए थे उसी प्रहर में उपाश्रय में लौट आते हैं। इसी प्रकार क्षेत्रसंक्रमण भी उसी प्रहर में होता है। १६७२. गहिए भिक्खे भोनं, सोहिय आवास आलयमुवेद
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जहिं निग्गओ तहिं चिय, एमेव य खेत्तसंकमणे ॥ १६७३. उच्चार-विहारादी, संभम-भय- चेहवंदणाईया | आयपरोभयहेतुं विणिग्गमा वष्णिया गच्छे॥ गच्छवासी मुनि को ग्लान, बाल, वृद्ध, तपस्वी तथा प्राचूर्णक आदि के कार्यों के लिए तथा कुल, संघ आदि के प्रयोजन से उपाश्रय से बाहर गृहस्थों के घर में अनेक बार जाना होता है। इसी प्रकार उच्चार- प्रस्रवण के लिए, स्वाध्याय के निमित्त निर्गमन करना पड़े, संभ्रम, भय, चैत्यवंदन आदि तथा अपने या पराए के लिए जो भी कार्य हो उनके लिए उपाश्रय से निर्गमन करने की बात कही गई है।
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१६७४. पाहुडिया बिय दुबिहा, बायर सुहुमा य होइ नायव्या ।
एक्वेक्का वि य एतो, पंचविहा होइ नायव्वा ॥ प्राभृतिका - ( वसति का छादन- लेपन आदि) दो प्रकार की होती है। उसे बावर और सूक्ष्म जाननी चाहिए। प्रत्येक के पांच-पांच प्रकार ज्ञातव्य हैं। यह आगे बताया जा रहा है।
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१६७५. विद्धंसण छायण लेवणे य, भूमीकम्मे पडुच्च पाहुडिया ।
ओसकण अहिसकण, देसे सव्ये य नायव्या ॥ बादर प्राभृतिका के पांच प्रकार ये हैं-विध्वंसन, छादन, लेपन, भूमीकर्म तथा प्रतीत्यकरण- साधुओं के निमित्त छोटा गृह बनाना अथवा अपना गृह साधुओं को निवासार्थ देकर दूसरे घर का निर्माण करना। इन पांचों के दो-दो प्रकार और हैं-अवष्वष्कण और अभिष्वष्कण। विध्वंसन आदि पांचों प्रकारों के दो-दो प्रकार ये हैं- देशतः और सर्वतः । १६७६. अच्छंतु ताव समणा, गएसु भंतूण पच्छ काहामो ।
ओभासिए व संते, न एंति जा भंतुणं कुणिमो ॥ एक गृहपति ने यह निश्चय किया कि मैं अपने इस घर को ज्येष्ठमास में तुड़वा कर नया भवन तैयार करूंगा। इधर ज्येष्ठमास में मुनि वहां आए और उस घर में मासकल्प के लिए ठहर गए। अब वह सोचता है-मुनि यहां रह रहे हैं। उनके जाने के बाद मैं नया भवन बना लूंगा। (यह अभिष्वष्कण है।) क्षेत्र प्रत्युपेक्षकों को अवभाषित अर्थात् वसति दे देने पर गृहपति सोचता है-जब तक यहां साधु न आएं तब तक इस मकान को तुड़वा कर नया बना लूं । (यह अवष्वष्कण है।)
१६७७. एसेव कमो नियमा, छज्जे लेवे य भूमिकम्मे य ।
तेसाल चाउसालं, पडुच्चकरणं जईनिस्सा ॥ यही क्रम नियमतः छादन, लेपन और भूमीकर्म के विषय में है। प्रतीत्यकरण का यह उदाहरण है-त्रिशाल वाले गृह का निर्माण कराने का इच्छुक गृहपति यतियों की निश्रा के कारण चतुःशाल वाले गृह का निर्माण कराता है। १६७८. पुव्वघरं दाऊण व, जईण अन्नं करिंति सट्टाए ।
काउमणा वा अन्नं न्हाणाइस कालमोसक्के ॥ गृहपति अपने पूर्वगृह के श्रमणों को रहने के लिए देकर अपने लिए नया घर बनाता है (यह भी प्रतीत्यकरण है।) अथवा कोई श्रावक अपने लिए अन्य गृह का निर्माण कराने का इच्छुक है, परंतु स्नानोत्सव आदि के कारण वह काल का ह्रस्वीकरण कर, उस अवसर पर मकान बना लेता है। यह अवष्वष्करण प्रतीत्यकरण है।
१. अवष्वष्कण-विध्वंसन आदि कालमर्यादा से पहले कर देना। अभिष्वष्कष्ण-विवक्षित काल का संवर्धन करना ।
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