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________________ १७२ -बृहत्कल्पभाष्यम् १६६०.पडिलेहणा उ काले, अपडिलेह दोस छसु वि काएसु। न की जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि पडिगहनिक्खेवणया, पडिलेहणिया सपडिवक्खा॥ ऋतुबद्ध काल में प्रतिग्रह और मात्रक धारण नहीं किया जाता यह भी द्वार गाथा है। काल में प्रत्युपेक्षणा करना। अथवा उपकरण को बांधा न जाए तो मासलघु का प्रायश्चित्त अप्रत्युपेक्षा। सदोष प्रत्युपेक्षा। छह जीवनिकाय पर विहित है। वर्षा ऋतु में उपधि को बांधा जाता है या दोनों प्रतिष्ठित। पतद्ग्रह का निक्षेपण। प्रतिलेखना सप्रतिपक्षा भाजनों को धारण किया जाता है तो मासलघु का प्रायश्चित्त (सापवाद) होती है। (व्याख्या आगे) आता है। १६६१.सूरुग्गए जिणाणं पडिलेहणियाए आढवणकालो। १६६५.असिवे ओमोयरिए, सागार भए व राय गेलन्ने। थेराणऽणुग्गयम्मी, ओवहिणा सो तुलेयव्वो॥ जो जम्मि जया जुज्जइ, पडिवक्खो तं तहा जोए। जिनकल्पी मुनियों के लिए प्रत्युपेक्षणा का आरंभकाल है अशिव, अवमौदर्य, सागारिक के देखते, स्तेन आदि के सूर्योदय। स्थविरकल्पी मुनियों के लिए उसका आरंभकाल है। भय से, प्रत्यनीक राजा के कारण, ग्लानत्व हो जाने पर-इन अनुद्गतसूर्य। उसको उपधि से तोलना चाहिए। (उपधि कारणों से उपधि आदि की प्रत्युपेक्षा नहीं की जाती। इन से तोलने का तात्पर्य है-पांच यथाजात, तीन कल्प (एक स्थितियों में जहां जैसा योग हो वहां वैसा प्रतिपक्ष अर्थात् ऊनी, दो सौत्रिक), संस्तारकपट्ट, उत्तरपट्ट तथा दंड-इन अपवाद का आलंबन लिया जा सकता है। ग्यारह उपकरणों की प्रतिलेखना करते-करते जब सूर्य उदित १६६६.तस-बीयरक्खणट्ठा, काएसु वि होज्ज कारणे पेहा। होता है।) नदिहरणपुत्तनायं, तणू य थूरे य पुत्तम्मि॥ १६६२.लहुगा लहुगो पणगं, उक्कोसादुवहिअपडिलेहाए। १६६७.जइ से हवेज्ज सत्ती, उत्तारिज्जा तओ दुवग्गे वि। दोसेहि उ पेहंते, लहुओ भिन्नो य पणगं च॥ थूरो पुण तणुअतरं, अवलंबंतो वि बोले। उत्कृष्ट उपधि की प्रतिलेखना न करने पर चार लघुक, कारणवश षट्काय पर प्रतिष्ठित होकर त्रस तथा बीजों मध्यम में मासलघु और जघन्य में पंचक का प्रायश्चित्त की रक्षा के लिए प्रत्युपेक्षा की जाती है। शिष्य प्रश्न करता है आता है। यदि वह दोषदृष्ट प्रतिलेखना करता है तो उत्कृष्ट कि क्या वह दोषभाग नहीं होता? आचार्य कहते हैं यहां उपधि के मासलघु, मध्यम के भिन्नमास और जघन्य के पांच नदीहरणोपलक्षितपुत्र का उदाहरण ज्ञातव्य है। एक व्यक्ति के दिन-रात। दोपवले. दो पुत्र थे-एक स्थूल और एक कृश। एक बार वह दोनों पुत्रों १६६३.काएसु अप्पणा वा, उवही व पइडिओऽत्थ चउभंगो। को साथ ले गामान्तर जा रहा था। बीच में एक नदी आ गई। ___ मीस सचित्त अणंतर-परंपरपइट्ठिए चेव॥ वह ऊंडी और विस्तृत थी। यदि उसमें शक्ति होती तो वह प्रतिलेखना करते समय स्वयं या उपधि छह कायों पर दोनों को नदी के पार पहुंचा देता। इतनी शक्ति न होने प्रतिष्ठित हो इस विषय में चतुर्भगी होती है। षट्काय मिश्र पर उसने कृश पुत्र को लेकर नदी पार की। यदि वह अथवा सचित्त हो सकती है। इन पर साधु अथवा उपधि स्थूल पुत्र को लेकर जाता तो दोनों डूब जाते। अतः उसकी अनन्तर या परंपररूप से प्रतिष्ठित हो सकती है। उपेक्षा की। १६६४.आयरिए य परिन्ना, गिलाण सरिसखमए य चउगुरुगा। १६६८.अंगारखड्डपडियं दट्टण सुयं सुयं बिइयमन्नं। उडु अधरऽबंध लहुओ, बंधण धरणे य वासासु॥ पवलित्ते नीणितो, किं पुत्ते नो कुणइ पायं। आचार्य, परिज्ञावान्-अनशन में संलग्न, ग्लान तथा इसी अर्थ की पुष्टि के लिए यह दूसरा दृष्टांत है-एक ग्लान के सदृश क्षपक-तपस्वी-इन चारों की यदि प्रत्युपेक्षा व्यक्ति के दो पुत्र थे। एक दिन घर में आग लग गई। एक पुत्र १. प्राभातिक प्रतिलेखना संबंधी अनेक आदेश हैं-जब कुक्कुट अथवा उत्तरपट्ट, तीन कल्प। आवश्यक के पश्चात् इन दसों की प्रतिलेखना कौए बोले तब, सूर्य उदित होने पर, जब प्रकाश हो जाए, जब उपाश्रय कर लेने पर सूर्य उदित होता है। (वृ. पृ. ४८८, ४८९) में प्रवजित मुनि एक दूसरे को दीखने लग जाए अथवा पहचानने लग २. पितृस्थानीयः साधुः, पुत्रद्वयस्थानीयाः स्थिराऽस्थिरसंहनिनः जाए, जब हाथ की रेखाएं दीखने लगे। आचार्य कहते हैं-ये सारे पृथिवीकायादयः, ततः साधुना प्रथमतो निर्विशेषं षडपि कायाः अनादेश हैं। प्रतिलेखना का वास्तविक काल है-आवश्यक करने के स्थिरसंहनिनोऽस्थिरसंहनिनश्च रक्षणीयाः। अथान्यतरेषां पश्चात् तीन स्तुतियां के पूर्ण होने पर प्रतिलेखना का काल होता है। विराधनामन्तरेणाध्वगमनादिषु प्रत्युपेक्षणादीनां प्रवृत्तिरेव न आवश्यक कर लेने के पश्चात् इन निम्नोक्त दस वस्तुओं की घटामञ्चति ततः स्थिरसंहनिनां पृथिव्यादीनां विराधनामभ्युपेत्याप्रतिलेखना कर लेने के बाद सूर्य उदित हो। वे दस वस्तुएं ये प्यस्थिरसंहनिनस्त्रसादयो रक्षणीया इति। (वृ. पृ. ४९१) हैं-मुंहपत्ति, रजोहरण, दो निषद्याएं, एक चुल्लपट्ट, संस्तारक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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