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पहला उद्देशक
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१६४९.अट्ठ उ गोयरभूमी, एलुगविक्खंभमित्तगहणं च। आचरण करते हैं। वे छह कल्प ये हैं-प्रव्राजना, मुंडापना,
सग्गाम परग्गामे, एवइय घरा य खित्तम्मि॥ शिक्षापना, उपस्थापना, संभुंजना और संवासना। किसी क्षेत्रअभिग्रह-गोचरभूमियां आठ हैं ऋज्वी, गत्वा- कारणवश अथवा असमर्थता के कारण वे प्रव्राजना आदि लेने प्रत्यागतिका गोमूत्रिका, पतंगवीथिका, पेडा, अर्द्धपेडा, वाले को अन्यत्र गच्छान्तर में गीतार्थ आचार्य के पास जाने अभ्यन्तरशम्बूका, बहिःशम्बूका।' भिक्षा के लिए गमनागमन के लिए उपदेश देते हैं। के ये आठ प्रकार हैं। मैं देहली मात्र का उल्लंघन कर भिक्षा १६५५.जीवो पमायबहुलो, पडिवक्खे दुक्करं ठवेउं जे। ग्रहण करूंगा। मैं स्वग्राम और परग्राम में इतने घरों से भिक्षा केत्तियमित्तं वोज्झिति, पच्छित्तं दुग्गयरिणी वा॥ लूंगा-यह क्षेत्रतः अभिग्रह है।
जीव प्रमादबहुल होता है। उसको अप्रमाद में स्थापित करना १६५०.काले अभिग्गहो पुण, आई मज्झे तहेव अवसाणे। दुष्कर होता है। जैसे दुर्गतऋणिक अर्थात् दरिद्र कर्जदार की
अप्पत्ते सइ काले, आई बिइओ अ चरिमम्मि॥ भांति वह प्रमादबहुल जीव कितना प्रायश्चित्त वहन कर सकेगा। काल-अभिग्रह इस प्रकार है-भिक्षावेला के आधार पर इसलिए स्थविरकल्पिकों के मन से किए अपराध का कोई तपः काल अभिग्रह तीन प्रकार का होता है-आदि, मध्य और प्रायश्चित्त नहीं होता, आलोचना, प्रतिक्रमण-यह प्रायश्चित्त तो अवसान। अप्राप्त भिक्षाकाल में पर्यटन करना आद्यभिक्षा- होता ही है। श्लोक १६३५ के अंतिम दो चरण 'कारण कालविषयक प्रथम अभिग्रह है। भिक्षाकाल में पर्यटन पडिकम्मम्मि उ, भत्तं पंथो य भयणाए॥' का भावार्थ यह करना मध्यभिक्षाकालविषयक द्वितीय अभिग्रह है। अतिक्रांत है कारण अर्थात् अशिव, अवमौदर्य होने पर अपवाद पद का भिक्षा-काल में पर्यटन करना अवसानविषयक तीसरा सेवन किया जा सकता है। कारण में शरीर का परिकर्म भी मान्य अभिग्रह है।
है। सामान्यतः तीसरे प्रहर में भिक्षाटन और विहार किया जाता १६५१.दिंतग-पडिच्छगाणं,हविज्ज सुहुमं पि मा हु अचियत्तं। है। अपवाद में इन दोनों में भी भजना है, विकल्प है।
इअ अप्पत्ते अइए, पवत्तणं मा ततो मज्झे॥ १६५६.गच्छम्मि उ एस विही, नायव्वो होइ आणुपुव्वीए। भिक्षादाता और प्रतीच्छक-दोनों के सूक्ष्मरूप से भी जं एत्थं नाणत्तं, तमहं वोच्छं समासेणं॥ अप्रीतिक न हो, इसलिए अप्राप्त अथवा अतिक्रांत भिक्षाकाल गच्छवासी मुनियों की यह विधि परिपाटी से ज्ञातव्य है। में पर्यटन श्रेयस्कर है। पुरःकर्म और पश्चात्कर्म का प्रवर्तन न इसमें जो नानात्व है-विशेष है, वह मैं संक्षेप में कहूंगा। हो इसलिए मध्य अर्थात् भिक्षाकाल में पर्यटन करना १६५७.सामायारी पुणरवि, तेसि इमा होइ गच्छवासीणं। श्रेयस्कर है।
पडिसेहो व जिणाणं, जं जुज्जइ वा तगं वोच्छं। १६५२.उक्खित्तमाइचरगा, भावजुया खलु अभिग्गहा होति। गच्छवासी मुनियों की पुनः वक्ष्यमाण यह सामाचारी
गायंतो व रुदंतो, जं देइ निसन्नमादी वा॥ होती है। जिनकल्पी मुनियों के इसी सामाचारी का प्रतिषेध उत्क्षिप्तचरक, निक्षिप्तचरक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, है। उनके भी जो प्रत्युपेक्षणा आदि आवश्यक है, वह मैं पृष्टलाभिक आदि भाव अभिग्रह वाले होते हैं। जो गाता बताऊंगा। हुआ, रोता हुआ, बैठा हुआ, प्रस्थित होता हुआ देगा, वह मैं १६५८.पडिलेहण निक्खमणे,पाहुडिया भिक्ख कप्पकरणे य। ग्रहण करूंगा ये सारे भाव अभिग्रह हैं।
गच्छ सतिए अ कप्पे, अंबिल भरिए य ऊसित्ते॥ १६५३.ओसक्कण अहिसक्कण, परम्मुहाऽलंकिएयरो वा वि। १६५९.परिहरणा अणुजाणे, पुरकम्मे खलु तहेव गेलन्ने। भावन्नयरेण जुओ, अह भावाभिग्गहो नाम॥
गच्छपडिबद्धहालंदि उवरि दोसा य अववादे॥ इसी प्रकार अपसरण करता हुआ, सम्मुख आता हुआ, ये दोनों द्वारगाथाएं हैं। इनका पूरा विवरण आगे की पराङ्गख होकर, अलंकृत पुरुष, अनलंकृत पुरुष यदि देगा तो अनेक गाथाओं में है। मैं ग्रहण करुंगा। इन भावों से किसी अन्यतर भाव से देना प्रतिलेखन, निष्क्रमण, प्राभृतिका, भिक्षा, कल्पकरण, भी अभिग्रह है।
शतिकगच्छ (सौ मुनियों वाला गच्छ), कल्प्य, अम्ल, १६५४. सच्चित्तदवियाकप्पं, छव्विहमवि आयरंति थेरा उ। भरण, उत्सिक्त, परिहरण, अनुयान, पुरःकर्म, ग्लानत्व, ___ कारणओ असहू वा, उवएसं दिति अन्नत्थ॥ गच्छप्रतिबद्ध यथालंदिक, मासकल्प के अधिक रहने से
स्थविरकल्पी मुनि छह प्रकार के सचित्तद्रव्यकल्प का दोष, अपवाद....।। १. इन गृह-पंक्तियों में भिक्षाटन करने का विस्तार से वर्णन टीका में है।
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